नाट्यशास्त्र में Aangik Abhinay आंगिक अभिनय के अंतर्गत विभिन्न अंगों और प्रत्यंगों की मुद्राओं और गतियों का सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन किया गया है। आंगिक अभिनय को इतना अधिक महत्व देने के तीन कारण हैं ।
1- नृत्य को नाट्यकला का ही अंग माना गया है। अंगों की विभिन्न मुद्राएँ नृत्य के लिए भी निर्धारित की गई हैं बल्कि यों कहिए कि अधिकांश शारीरिक चेष्टाएँ नृत्य को ध्यान में रखकर ही विवेचित की गई हैं और उनका उपयोग नृत्य में भी होता है, आज भी शास्त्रीय नृत्य का अभिनय पक्ष एक महत्वपूर्ण भाग है और अभिनय के बिना नृत्य पूर्णता को प्राप्त नहीं करता। इस अभिनय का आधार अधिकांशतः शारीरिक चेष्टाएँ होती हैं।
2- प्राचीन काल में, जब यातायात और आवागमन के साधन सीमित थे और क्षेत्र तथा भाषा का भेद प्रत्येक स्थान पर संप्रेषण में बाधक था, संस्कृत का प्रचार देशभर में अवश्य था। लेकिन इसका प्रचलन शासक और बुद्धिजीवी वर्ग तक ही सीमित था। सामान्य जनता की अनेक क्षेत्रीय भाषाएँ और बोलियाँ….पाली, पिशाची, मागधी, शौरसेनी आदि उत्तर में और दक्षिण में द्राविड़ परिवार की क्षेत्रीय भाषाएँ थीं। उनकी भाषा को समझना प्रत्येक नागरिक के लिए संभव नहीं था। भाषा की इस बाधा को आंगिक अभिनय के द्वारा कुछ हद तक पार कर लिया गया था।
3 – उस समय मंचन की सुविधाएँ तथा उपकरण पर्याप्त नही थे। आज बिजली, रेडियो, सैटेलाईट, इंटरनेट, लेजर तथा कम्प्यूटर के द्वारा मंच पर किसी भी प्रकार के दृश्य को प्रस्तुत करना संभव है। प्राचीन काल में शारीरिक अभिनय की सांकेतिक भाषा में ऐसे अनेक प्रतीक रूप में मंच पर दिखाए जाते थे जिन्हें सामान्य रूप में प्रस्तुत करना असंभव था।
उदाहरण के रूप में हाथों को बगल में करके ऊपर उठा लें और फिर स्वस्तिक बना दें। साथ ही सिर को ऊपर उठाकर दृष्टि ऊपर रखें। इस मुद्रा से विस्तृत आकाश, जलाशय, दिशाएँ, नक्षत्र और प्रभात तथा रात्रि आदि के दृश्य प्रदर्शित किए जाते थे। आधुनिक कथाकली नृत्य नाटिकाओं में अंगों की विभिन्न मुद्राओं और चेष्टाओं के द्वारा ही किसी संवाद के बिना भाव-व्यंजना की जाती है।
पाश्चात्य देशों में भी जब मंचन और संप्रेषण की इतनी सुविधाएँ नहीं थीं, तब वहाँ नाट्यकला पर लिखे गए ग्रंथों में शारीरिक अभिनय को प्रमुखता दी जाती थी। मध्यकालीन यूरोप में आंगिक मुद्राओं को भाव-व्यंजना के रूप में चित्रित करने वाले अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं। सत्रहवीं शताब्दी में जॉन वुलवर का एक ऐसा ग्रंथ ‘कीरो लोजिया एंड कीरोजोनिया’ मिलता है।
अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में भी इस प्रकार के अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं। आधुनिक युग में मंचन और अभिव्यक्ति के वैज्ञानिक उपकरण उपलब्ध होने के बाद पाश्चात्य नाट्य विदों की दृष्टि में शारीरिक अभिनय का स्थान गौण हो गया था। लेकिन जब से डार्विन ने ‘मानव और पशु में संवेगों की अभिव्यक्ति’ (Expression of emotion in Man and Animal) नामक ग्रन्थ में शारीरिक मुद्राओं की अर्थवत्ता और भावपूर्णता सिद्ध की है, तब से वहाँ विभिन्न अंगों की गतियों का गहन अध्ययन किया जाने लगा है।
एलेक्जेंडर लॉवेन (Alexandar Lowen) की पुस्तक ‘शरीर की भाषा’ (Language of Body), बेकन और ब्रीन (Bacon & Breen) की ‘साहित्य एक अनुभव’ (Literature as an Experience) और एडवर्ड टी. हॉल (Edward T. Hall) की ‘मौन भाषा’ (Silent Language) में शारीरिक चेष्टाओं और मुद्राओं की व्यंजनात्मक शक्ति पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
अमरीकी नृतत्व-शास्त्री रे.एल. बर्डविस्टिल (Ray L. BirDwistell) ने विज्ञान की एक नवीन शाखा ‘काइनसिक्स’ (Kinesics) का विकास किया है जिसमें शरीर की भाषा का अध्ययन होता है। जिस बात पर आधुनिक नाट्यशास्त्री जोर देते हैं उसे भरत ने बहुत पहले ही स्पष्ट कर दिया था अर्थात् सत्व (मन) के योग के बिना शारीरिक गतियाँ निर्जीव हैं। मात्र आंगिक चेष्टाएँ संवेग की अभिव्यक्ति नहीं कर सकतीं। संवेग और अनुभूति का सामंजस्य भी आवश्यक है।
लेकिन यह भी निश्चित है कि शरीर के योग के बिना संवेगों का बाह्यीकरण-समाजीकरण Externalization-socialization नहीं हो सकता, जिसके बिना संवेगों की कोई प्रतिक्रिया दर्शकों पर नहीं और न अभिनेता पर उनका कोई प्रति-प्रभाव पड़ता है अर्थात् अभिनेता को संवेगों की अनुभूति नहीं हो सकती। अभिनेता और श्रोता दोनों रसानुभूति में एक-दूसरे के लिए उद्दीपक Stirring की भूमिका निभाते हैं।
संवेग अर्थात् संचारी और स्थायी भाव सामाजिक घटनाएँ हैं और उनकी सही तथा तीव्र अनुभूति हमको तभी होती है जब दर्शकों पर उनकी कोई प्रतिक्रिया हो और हम उस प्रतिक्रिया से अवगत हों। भाषा ने जहाँ हमारी अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावी और सुविधाजनक बनाया है, वहीं उसने तीव्र भावनाओं के सहज प्रवाह को अवरुद्ध भी किया है।
क्रोध के कहर और प्रेम की ऊष्मा को शब्द कभी व्यक्त नहीं कर सकते। दाँत पीसना, ओठ काटना, मुट्ठी भींचना और लाल-लाल आँखें तरेरना इन मद्राओं से जो भाव व्यक्त होता है उसे ये वाक्य- ‘मैं देख लूँगा, मैं कच्चा चबा जाऊँगा, मैं हड्डी-पसली एक कर दूँगा’, स्वयं अकेले कभी प्रगट नहीं कर सकते।
इसी प्रकार गर्मजोशी से हाथ मिलाना, कौली भर लेना, आँखें प्रफुल्ल होकर चमक उठना और चेहरा खिल जाना आदि चेष्टाओं से जो भाव व्यक्त होता है, उसे केवल ‘मैं तुमसे मिलकर बहुत खुश हूँ, तुम मेरे सबसे प्यारे दोस्त हो और तुम्हारे मिलने से धन्य हुआ’ आदि वाक्यों के द्वारा प्रगट नहीं किया जा सकता।
इसी कारण सात्विक अभिनय को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए भी भरत ने आंगिक अभिनय की महत्ता को स्वीकार किया है और उसके निरूपण में अत्यंत सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है। नाट्यशास्त्र में आंगिक अभिनय के तीन उपभेद किए गए हैं : 1. शारीरिक, 2. मुखज, 3. चेष्टाकृत।
आंगिक विकारों और मुद्राओं को तीन वर्गों में विभाजित किया है
1- शाखा (आंगिक अभिनय जो सामान्य रूप से नाटकों में प्रदर्शित किया जाता है),
2- अंकुर (गायक तथा वक्ता द्वारा भाव-प्रदर्शन के लिए प्रयुक्त शारीरिक चेष्टाएँ अर्थात् वाचिक-अभिनय के दौरान शारीरिक अभिनय का प्रयोग)
3- नृत्त (नृत्य में प्रयुक्त आंगिक मुद्राएँ अर्थात् करण और अंगहार।)
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