What is Acting ? Abhinay Kya Hai ? अभिनय केवल रंगमंच,फ़िल्म और टेलीविज़न तक ही सीमित नहीं है, अपने व्यापक अर्थ से सारे वे समस्त कार्यकलाप Acting अभिनय की श्रेणी में आते हैं जो आंतरिक भावों को दूसरों तक पहुँचाते हैं-अभिनीत करते हैं।
अभिनय, भूमिका और सामान्य जीवन…
समझने की कोशिश करते हैं कि Abhinay Kya Hai ? आंगिक चेष्टाएँ, हावभाव, वाणी, भाषा, साहित्य और कलाएँ- ये सभी गतिविधियाँ अमूर्त भावों का समीकरण हैं। प्राणी की कोई ऐसी बाह्य क्रिया नहीं जिसे अभिनय की संज्ञा न दी जा सके। इसलिए केवल आंगिक और रंगमंचीय अभिनय का ही नहीं बल्कि भाव की सभी व्यंजक विधाओं-भाषा, छंद, काव्य, संगीत और नृत्य का विवेचन किया गया है।
इसका अर्थ यह हुआ कि हम वास्तविक जीवन में जो कुछ करते हैं, वह सब अभिनय ही है। अंतर केवल इतना है कि फ़िल्म,टीवी एवं मंचीय अभिनय में हम दूसरे व्यक्ति के चरित्र का निरूपण करते हैं और उसके सत्व /वास्त्विकता (Essence) को अपने ऊपर धारण करते हैं जबकि वास्तविक जीवन में हम अपने सत्व और चरित्र का भी भावपन करते हैं।
यह दूसरी बात है कि हम अपने असली रूप को कितनी ईमानदारी और पूर्णता से प्रगट करते हैं। फ़िल्म,टीवी एवं मंच पर अभिनय की बात जाने दीजिए, कितने लोग हैं जो वास्तविक जीवन में पति, पिता, प्रेमी या मित्र की भूमिका सफलतापूर्वक निभा पाते हैं।
कितने लोग हैं जिनकी आँखें, चेहरा, स्वर और हाथों की मुद्राएँ वही कहती हैं जो वे शब्दों में व्यक्त करना चाहते हैं। एक पति जीवन भर अपनी पत्नी के प्रति निष्ठावान रहता है, उसके सुख-दुःख में हाथ बँटाता है, उसे और उसके बच्चों को पालने के लिए दिन-रात खटता रहता है, फिर भी पत्नी उसके मुँह से प्रेम के दो बोल- ‘मैं तुम्हें प्यार करता हूँ’ सुनने के लिए तरस जाती है।
ऐसा दो कारणों से होता है। एक तो कुछ लोग स्वभाव से अंतर्मुखी होते हैं, मन की बात जुबान पर कम लाते हैं और आत्म-प्रदर्शन से दूर रहते हैं। दूसरे, सस्कृति का तकाजा है कि हम अप्रिय और असामाजिक आचरण को कम-से-कम प्रगट करें।
किसी अतिथि के आगमन पर महँगाई और आर्थिक तंगी के कारण भले ही हम उदास हो जाएँ, लेकिन वास्तविक परिस्थिति मे हम उसके सामने अपना हर्ष और उल्लास ही जताते हैं। किसी दावत में खाना भले ही बेस्वाद और साधारण बना हो फिर भी हम उसकी तारीफ करते हैं।
अंग्रेजी शब्द पर्सनैलिटी (Personality)-व्यक्तित्व यूनानी शब्द परसोन (Person) से बना है, जिसका अर्थ है मुखौटा। इस प्रकार व्यक्तित्व एक दिखावटी और ओढ़ा हआ चरित्र होता है जिसे हम दुनिया के सामने प्रगट करना चाहते हैं। हम अपना असली चेहरा कभी सामने नहीं लाते। किसी परिस्थिति विशेष में जो मुखौटा सबसे उपयुक्त होता है, वही मुखौटा हम पहन लेते हैं।
यह सोचना भ्रम है कि श्रेष्ठ अभिनय वही है जिसमें भावों को बेलाग और निर्बाध रूप से प्रगट किया जाता है। असंयत और स्वेच्छाचारी आचरण न तो वास्तविक जीवन में वांछनीय है और न अभिनय में। स्वाभाविकता का अर्थ मनमाना व्यवहार नहीं।
वास्तव में प्रत्येक मनुष्य के अहम् के दो पक्ष होते हैं…।
(1) सामाजिक, जो विकास और संस्कृति से जुड़ा होता है और जिसे फ्रायडियन भाषा में सुपर ईगो (super ego) कहते हैं ।
(2) निजी, जो हमारी मूल आदिम प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। हमारा स्वाभाविक आचरण दोनों का समन्वय होता है। सामाजिक अहम् निजी अहम् को नियमित और दिशा-निर्देशित करता है। इसलिए क्या अभिनय और क्या व्यावहारिक जीवन, हमारा आचरण तब तक स्वाभाविक नहीं हो सकता, जब तक उसमें दोनों अहम् का योगदान न हो।
कुछ स्थितियाँ ऐसी भी हैं जहाँ पात्र-विशेष रूप से नारी पात्र द्वारा युवावस्था में श्रंगार रस के निर्वाह में भावातिरेक के कारण अपने स्वभाव के विपरीत किया गया अनियंत्रित आचरण भी अभिनय को विकृत करने के बजाय अधिक आकर्षक और भावव्यंजक बना देता है। ऐसे आचरण को भरत मुनि ने अलंकार का नाम दिया है, जो भाषा की व्यंजना शक्ति की भाँति अभिनय की संप्रेषण Communication शक्ति को बढ़ाते हैं।
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