Abhinay Me Aankho ka Prayog  अभिनय मे आंखो का प्रयोग

Abhinay Me Aankho ka Prayog

 एक अभिनेता मे Abhinay Me Aankho ka Prayog  कर आंखों की अभिव्यक्ति के माध्यम से  सीधे दर्शक को जोड़ता है । कई बार अभिनय के दौरान ऐसी स्थिति आती है की अभिनेता शारीरिक हाव – भाव हीन हो जाता है   जो संवाद विहीन होते हुये भी आंखो के माध्यम से वह  सब  कुछ  कह जाता है जिसकी कल्पना भी नही की जा सकती ।

 

आंगिक अभिनय मे दृष्टि के भेद

सिर में नेत्रों का स्थान सबसे ऊपर और महत्वपूर्ण है। उनकी गतियों अर्थात् दृष्टि के 36 भेद बताए गए हैं। 8 स्थायी भावों, 8 रसों तथा 20 संचारी भावों के लिए नेत्रों की मुद्राएँ निर्धारित की गई हैं। नेत्रों के प्रत्येक भाग-पलक, भृकुटि, पुतलियाँ और पक्ष्मांश सभी की गतियों का सूक्ष्म अध्ययन किया गया है और उनकी व्यंजना शक्ति का अलग वर्णन किया गया है।

पहले संपूर्ण नेत्रों की मुद्राएँ अर्थात् दृष्टि के भेद बताए गए हैं। आठ स्थायी भावों की विशिष्ट मुद्राएँ निम्नलिखित हैं

1 –  कांता : कामुक, कटाक्षपूर्ण और हर्षोल्लासित दृष्टि कांता कहलाती है, जो श्रृंगार रस से संबद्ध है।

2 –   भयभीत : पलक ऊपर उठकर स्थिर हो जाना और पुतलियों का तेजी से चक्राकार घूमना इस मुद्रा के लक्षण हैं, जो भयानक रस में प्रगट होती है।

3 –   स्मिता : इसके लक्षण हैं-दोनों नेत्रों के पलकों का बारी-बारी से संकुचित होना और पुतलियों का छोटी तथा विभ्रांत हो जाना। यह दशा हास्य रस में होती

4 –   करुण : ऊपरी पलकों का नीचे गिर जाना, कष्ट से पुतलियों का मंद हो जाना और दृष्टि का नासिका के अग्रभाग पर टिक जाना इस मुद्रा का परिचय देते हैं। यह करुण रस में प्रयुक्त होती है।

5 –   अद्भुत : नेत्रों की इस मुद्रा में बरौनियाँ संकुचित हो जाती हैं, पुतलियाँ विस्मय से ऊपर उठ जाती हैं और नेत्र सौम्य एवं प्रफुल्ल हो जाते हैं। यह दशा अद्भुत रस में होती है।

6 –   रौद्र : भृकुटियाँ कुटिल हो जाती हैं, पलक स्थिर हो जाते हैं और पुतलियाँ रूक्ष एवं आरक्त हो जाती है। यह दृष्टि रौद्र रस की द्योतक है।

7 –   शौर्य : नेत्र दीप्त, विकसित, गंभीर और क्षुब्ध हो जाते हैं। साथ ही पुतलियाँ मध्य में समान रूप से उठी हुई रहती हैं। यह शौर्य की दृष्टि है।

8 –   वीभत्स : आँखों की कोरें संकुचित हो जाती हैं, बरौनियाँ संश्लिष्ट और स्थिर रहती हैं तथा पुतलियाँ घुमाव से ढक जाती हैं। इस दृष्टि से बीभत्स रस का प्रदर्शन किया जाता है।

9 –   स्निग्धा : आँखें मध्य भाग में फैली हुईं, मधुर, आनंद के आँसुओं से पूर्ण और स्निग्ध रहती हैं। पुतलियाँ स्थिर और आशावान हो जाती हैं। आँखों की यह दशा रतिभाव में होती है।

10 –   हृष्टा : दृष्टि चंचल, पुतलियाँ विकसित और बरौनियाँ स्थिर एवं संकुचित हो जाती हैं। यह हास्य भाव की दृष्टि है।

11 –   ऋद्धा : दृष्टि रूक्ष, पलकें तनी हुई और स्थिर, पुतलियाँ ऊपर उठी हुई और भृकुटियाँ कुटिल हों। यह रौद्र भाव की दृष्टि है।

12 –   दीना : ऊपरी पलकें नीचे गिर जाती हैं, पुतलियाँ फूलकर कुछ मंद पड़ जाती हैं और दृष्टि में दीनता आ जाती है। यह दृष्टि शोक भाव की सूचक है।

13 –   दृप्ता : दृष्टि स्थिर, तेजस्वी और विकसित और पुतलियाँ अविचलित हों। उत्साह भाव में दृष्टि का यही रूप रहता है।

14 –   भयान्विता : दोनों पलकें विस्फारित, पुतलियाँ कपित और उनका मध्य भाग उन्नत रहता है। भय के अभिनय में दृष्टि को इसी दशा में रखा जाता है।

15 –   जुगुप्सिता : पलकें संकुचित और पुतलियाँ बंद हों तथा दृष्टि लक्ष्य और

दृश्य की ओर से फेर ली जाए। वीभत्स भाव का अभिनय इसी दृष्टि से किया जाता

16 –   विस्मिता : पुतलियाँ पूरी शक्ति से ऊपर उठी हुईं, पलकें भृकुटियों में समाविष्ट होकर अंतर्धान हो जाएँ और नेत्र समान रूप से विस्फारित हों। दृष्टि का यह रूप विस्मय भाव में देखा जाता है।

17 –   शून्या : पुतलियाँ और पलकें सामान्य स्थिति में, नेत्र निश्चल और बाह्य पदार्थों के प्रति तटस्थ एवं उदासीन। इस दृष्टि से चिंता का भाव प्रगट किया जाता

18 –   मलिन : पलक अधखुले और पुतलियाँ स्थिर हों, आँखों की कोरें मलिन और बरौनियाँ स्पंदित हों। निर्वेद और विवर्ण भावों में इस दृष्टि का प्रयोग किया जाता है।

19 –   श्रांत : पलकें श्रम से क्लांत, आँखों की कोरें सिकुड़ी हुई, पुतलियाँ नीचे गिरी हुई और निश्चेष्ट हों। श्रम और स्वेद की दशाओं में दृष्टि का यही रूप होता है।

20 –   लज्जान्विता : पक्ष्माग्र कुछ झुके हुए, ऊपरी पलकें नीचे की ओर, पुतलियाँ गिरी हुई हों। यह लज्जा भाव की दृष्टि है।

21 –   म्लान : भौंहें, पलकें और बरौनियाँ म्लान हों, दृष्टि मंद और शिथिल हो और पुतलियाँ थकावट से धंसी हुई हों। ग्लानि, मूर्छा और व्याधि में इस दृष्टि का अभिनय किया जाता है।

22 –   शंकित : नेत्र कभी चंचल और कभी स्थिर, कभी ऊपर और तिरछे, कभी गूढ़ और चकित हों। इस मुद्रा का प्रयोग शंका में होता है।

23 –   विषादिनी : पलकें विषाद से फूले हुए, कोरें फैली हुईं और बरौनियाँ कभी खुलती हों और कभी मुँदती हों तथा पुतलियाँ कुछ स्थिर हों। विषाद भाव के अभिनय में इस दृष्टि का प्रयोग होता है।

24 –   मुकुला : बरौनियाँ संयुक्त और स्फुरित, ऊपरी पलकें अधखुली और पुतलियाँ आनंद से फैली हुईं। दृष्टि की यह मुद्रा स्वप्न, सुख और निद्रा में रहती

25 –   कुंचिता : पलकों के सिकुड़ने के कारण पक्ष्मान झुके हों और पुतलियाँ संकुचित हों। असूया, कष्टपूर्ण प्रेक्षण, आपदा और नेत्र शूल में इस दृष्टि का अभिनय किया जाता है।

 26 –   अभितप्ता : पलकों के हिलने से पुतलियाँ शिथिल हों और नेत्र आरक्त, व्यथित और संतप्त हों। आकस्मिक चोट और संताप में दृष्टि का यही रूप होता

27 –   जिहमा : मंद और तिरछी नजर के कारण पलकें सिकुड़ी और झुकी हुई हो. पतलियाँ स्थिर हों और दृष्टि रहस्यमयी हो। असूया, आलस्य और जड़ता का प्रदर्शन इसी दृष्टि से किया जाता है।

28 –   ललिता : मधुर, अनुरक्त और प्रफुल्ल, कोरें सिकुड़ी हुई और भृकुटियाँ उठी हुईं। यह दृष्टि हर्ष भाव की सूचक है।

29 –   वितर्किता : पलकें ऊपर उठी हुईं, पुतलियाँ खिली हुईं और नीचे की ओर घूमती हुईं। तर्क में दृष्टि इसी प्रकार की होती है।

30 –   अर्धमुकुला : आनंद से अधखुली पलकों के कारण पक्ष्याग्र अर्धमुकुलित हों और पुतलियाँ कुछ चंचल हों। हर्ष, सुगंध और सुस्पर्श के सुख में दृष्टि इसी मुद्रा में रखी जाती है।

31 –   विभ्रांता : पुतलियाँ और पलकें गतिशील हों, आँखें फैली हुई और प्रफुल्ल हों। आवेश, भ्रम और संभ्रम में इसी दृष्टि का प्रयोग होना चाहिए।

32 –   आकेकरा (अर्ध निमीलित) : पलकें और कोरें संश्लिष्ट, संकुचित और अर्धनिमीलित हों तथा पुतलियाँ बार-बार घूमती हों। दूर की चीज़ देखने और इष्टजन के बिछुड़ने पर दृष्टि इसी मुद्रा में रखी जाती है।

33 –   विकोषिता : पलकें फैली हुईं, नेत्र प्रफुल्ल और निर्निमेष तथा पुतलियाँ चंचल। गर्व, क्रोध, रौद्र और विबोध में इसी मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए।

34 –   त्रस्ता : पलकें झुकी हुई, पुतलियाँ प्रकंपित और आँखें कष्ट से फूली हुईं। यह दृष्टि त्रास भाव में रहती है।

35 –   मदिर : आँखों का मध्य भाग घूमता हो, नजर नीची हो, कोरें क्षीण और ऊपरी भाग में फैली हुई हों। सामान्य मद में दृष्टि की यही दशा होती है। मध्य मद में पलकें सिकुड़ जाती हैं, पुतलियाँ कुछ चंचल हो जाती हैं और दृष्टि कुछ अस्थिर हो जाती है। अधम मद में पलकें कभी खुलती हैं और कभी बंद हो जाती हैं, पतलियाँ कुछ दिखाई देती हैं और आँखें नीचे की ओर घूमती हैं।

36 –   विप्लुता : पलकें स्फुरित हों, नीचे गिरें और फिर स्थिर हो जाएँ। पुतलियाँ क्षुब्ध होकर ऊपर उठी रहें। इस दृष्टि का प्रयोग चंचलता, उन्माद, क्लेश और मरण में होता है।

 अब हम नेत्रों के उपांग-पुतलियाँ, पलक और भृकुटियों की मुद्राओं को क्रमशः लेते हैं


पुतलियाँ : इनकी 9 मुद्राएँ बताई गई हैं 

1 –   भ्रमण : पलकों के अंदर पुतलियों का मंडलाकार में घूमना।

2 –   वलन : पुतलियों का तिरछा घूमना।

3 –   चलन : पुतलियों का कंपित होना।

4 –   प्रवेशन : पुतलियों का आँखों की कोरों में चले जाना।

5 –   विवर्तन : कटाक्ष करना।

  1. पातन :पुतलियों का सीधा गिरना।

7 –   समुद्भूत : पुतलियों का ऊपर उठना।

8 –   निष्काम : पुतलियों का बाहर निकलना।

9 –   प्राकृत : पुतलियों का सहज रूप।

रसों और भावों में प्रयोग वीर और रौद्र रस में उद्वत और निष्काम मुद्रा का प्रयोग होता है। भयानक रस में पुतलियाँ वलन और निष्काम मुद्रा में रहती हैं। संप्रवेशन दशा हास्य और वीभत्स रस में, पातन दशा करुण रस में, निष्काम दशा अद्भुत रस में, विवर्तन दशा शृंगार रस में और प्राकृत दशा शेष भावों में रहती है।

 

पलकों की 9 मुद्राएँ

1 –   उन्मेष : पलकों का अलग होना।

2 –   निमेष : पलकों का मिलना।

3 –   प्रसृत : पलकों का फैलना।

4 –   कुंचित : पलकों का सिकुड़ना।

5 –   सम : पलकों का स्वाभाविक रूप।

  1. विवर्तित :पलकों का ऊपर उठना।

7 –   स्फुरित : पलकों का कंपित होना।

8 –   पिहित : पलकों का रुकना।

9 –   विताड़ित : पलकों का आहत होना।

अभिनय में प्रयोग : निमेष और उन्मेष के साथ विवर्तित मुद्रा क्रोध में रहती है। विस्मय, हर्ष और शौर्य में प्रसृत मुद्रा का प्रयोग होता है। अरुचिकर रूप, रस, गंध और स्पर्श में कुचित मुद्रा रहनी चाहिए। शृंगार में सम और ईर्ष्या में स्फुरित मुद्राओं का प्रयोग होता है। नेत्र रोग, सुप्तावस्था, मूर्छा, अंजन प्रयोग, पीड़ा तथा तेज हवा, धूप, ताप और वर्षा की स्थितियों में पलकों की पिहित मुद्रा रहती है। चोट लगने पर विताड़ित मुद्रा रहती है।

भृकुटी की 7 मुद्राएँ

1 –   उत्क्षेप : भृकुटियों का एक साथ या बारी-बारी से ऊपर उठना।

2 –   पातन : भृकुटियों का एक साथ या बारी-बारी से नीचे गिरना।

3 –   भृकुटी : भौहों के मूल को ऊपर उठाना। 4. चतुर : कुछ उच्छ्वास के साथ भौंहों का मुग्ध विस्तार।

5 –   कुचित : एक या दोनों भौंहों का अलग होना।

6 –   रोचित : एक भौंह को लास्य भाव से ऊपर उठाना।

7 –   सहज : भौंहों की स्वाभाविक स्थिति।

अभिनय में प्रयोग : कोप, वितर्क, तिरस्कार, लीला, सहज अवलोकन और श्रवण में एक भौंह को ऊपर उठाकर उत्क्षेप क्रिया का प्रयोग किया जाता है। विस्मय, हर्ष और रोष में दोनों भृकुटियों का उत्क्षेप होना चाहिए। असूया, जुगुप्सा, हास और प्राण में पातन क्रिया होती है। क्रोध और आवेश में भृकुटी मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए। शृंगार, विलास, सौम्य और सुखद स्पर्श तथा प्रबोधन में सहज मुद्रा रखनी चाहिए।

दृष्टि के विभिन्न अंगों में अवलोकन (दर्शन) का अलग वर्णन किया गया है। दृष्टि समस्त नेत्रों की शक्ति की द्योतक है। अवलोकन दृष्टि की शैली का संकेत देता है। दृष्टि में अंतर्मन की झलक भी रहती है। अवलोकन शारीरिक क्रिया है। अवलोकन के आठ प्रकार बताए गए हैं :

1 –   सम : पुतलियाँ सौम्य और एक समान होना अर्थात् सामने देखना।

2 –   साची : पुतलियाँ बरौनियों के अंदर चली जाती हैं और दृष्टि तिरछी हो

जाती है अर्थात् तिरछा देखना।

3 –   अनुवृत : एकटक देखना।

4 –   अलोकित : सहसा देखना।

5 –   विलोकित : पीछे देखना।

6 –   प्रलोकित : अगल-बगल देखना।

7 –   उल्लोकित : ऊपर देखना।

8 –   अवलोकित : नीचे देखना।

नाट्यशास्त्र में इनका प्रयोग नहीं बताया गया है। शायद इसलिए कि विभिन्न भावों में नेत्रों की स्थिति का संकेत पहले ही दिया जा चुका है।

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