रंगमंच हो या सिनेमा दोनों में चरित्रों की विविधता का विशेष ध्यान रखा जाता है। Abhinay Me Anchalik Bhasha का उल्लेख एक विशेष चरित्रों के लिये किया जाता है। उनका रूप और नाम दोनो मे गंवईपन प्रयोग होता हैं। सीधे-साधे ,अनपढ़ मजदूर जो जेंटल लोगों को देखकर सहम जाए ऐसे चरित्रों को समाहित किया जाता है।
अभिनय मे आंचलिक भाषा के चरित्रों का चित्रण
सर्वप्रथम भाषा को चार वर्गों में बाँटा गया है
1 – अतिभाषा : मनुष्येतर दिव्य प्राणियों की भाषा।
2 – अंतर्देशीय भाषा : कई प्रांतों अथवा देशों में बोली जानेवाली संपर्क भाषा। नाट्यशास्त्र में इसे आर्यभाषा बताया गया है। आज के युग में भारत में अंग्रेजी को इस श्रेणी में रख सकते हैं। आगे चलकर राष्ट्रभाषा हिंदी को भी यह स्थान मिल सकता है।
3 – जातीय या मातृभाषा: पात्रों की मातृभाषा दो प्रकार की होती है
1 – शिक्षित वर्ग की भाषा, 2 – जनसाधारण की भाषा अथवा आंचलिक भाषा।
नाट्यशास्त्र में संस्कृत और प्राकृत को क्रमशः प्रथम और दवितीय श्रेणी में रखा गया है। ध्यान देने की बात है कि संस्कृत को आर्यभाषा से भिन्न बताया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि नाट्यशास्त्र के रचनाकाल तक संस्कृत के दो भेद हो चुके थे-1 – वैदिक संस्कृत अथवा आर्यभाषा, 2 – सामान्य संस्कृत जिसे आज लौकिक संस्कृत का नाम दिया गया है और जो भारत में अब भी प्रचलित है।
4 – जात्यंतरी भाषा : पशु-पक्षियों की भाषा
जैसाकि वर्गीकरण से प्रगट है, रंगमंच पर दिव्य पात्रों से अतिभाषा (भारत में आजकल संस्कृत अथवा कोई भी प्राचीन भाषा), विदेशी पात्रों से अंतर्देशीय भाषा, देशी पात्रों से जाति भाषा और पशु-पक्षियों से जात्यंतरी भाषा का प्रयोग कराना चाहिए।
देशी पात्रों में शिक्षित की भाषा अशिक्षित से भिन्न होनी चाहिए। शिक्षित पात्र साहित्यिक भाषा का प्रयोग कर सकते हैं और अशिक्षित पात्र व्रज या अवधी जैसी आंचलिक भाषा को अपना सकते हैं। किंतु जिन पात्रों की मातृभाषा नितांत भिन्न और अबूझ हो उन्हें मंच पर अपनी मातृभाषा में बोलना आवश्यक नहीं।
नाट्यशास्त्र में किरात, आंध्र और द्रविड़ पात्रों का उदाहरण दिया गया है। ऐसे पात्रों से उनकी मातृभाषा में संवाद कराना उचित नहीं। कारण स्पष्ट है। श्रोतागण उनके संवादों को समझकर नाटक का आनंद ही नहीं ले पाएंगे।
विशेष स्थितियों में इन नियमों का उल्लंघन भी किया जा सकता है। जब कोई भद्रजन अथवा ऐश्वर्य खोकर अकिंचन अथवा उन्मत्त हो जाए, तब वह अपनी देहाती आंचलिक भाषा में बोल सकता है। जो शिक्षित पात्र छल-कपट से साध. संन्यासी, बाजीगर या भिखारी आदि दूसरे पात्रों का वेष धारण करके मंच पर प्रगट हों. उन्हें भी आंचलिक भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
यानि उन्हें अपनी टकसाली जातिभाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए, अन्यथा उनका असली रूप खुल जाएगा। इसी प्रकार बालकों, असाधारण रोग से पीड़ित पात्रों और पाखंडी व्यक्तियों से आंचलिक भाषा का प्रयोग कराना चाहिए।
नारी पात्रों के संबंध में भी दिशा-निर्देश दिए गए हैं। नारी पात्रों की भाषा सामान्य रूप से प्राकृत-आंचलिक बताई गई है (इससे सिद्ध होता है कि भरत के समय में अधिकांश स्त्रियाँ अशिक्षित ही होती थीं)।
विशेष अवसरों पर नारी पात्रों से संस्कृत में संभाषण कराने की भी अनुमति दी गई है। तदनुसार महारानी, गणिका और शिल्पी अथवा कलाकार नारी पात्र संस्कृत का प्रयोग कर सकते थे। जब राजमहल में संधि-विग्रह जैसे महत्वपूर्ण कूटनीतिक विषयों पर चर्चा चल रही हो या किसी विशेष को देखकर राजा के लिए शुभाशुभ परिणाम पर विचार हो रहा हो तब महारानी जैसे नारी पात्रों का संवाद भी संस्कृत में रखा जाता था। राजा के मनोरंजन के लिए जब कोई स्त्री कलाकार किसी कार्यक्रम का प्रदर्शन करती थी तब वह भी संस्कृत में बोल सकती थी। अप्सराओं के संवाद सदैव संस्कृत में ही रखे जाते थे।
आज के युग में हिंदीभाषी क्षेत्र में खड़ी बोली को संस्कृत के समकक्ष मान सकते हैं जिसे गाँव-गँवई के लोग, विशेषरूप से स्त्रियाँ कम ही बोलती हैं। नाटक में उनकी बातचीत सामान्य रूप से देहाती बोली में ही स्वाभाविक होगी।
यहाँ एक बात का उल्लेख करना आवश्यक है, हालाँकि यह विषय से थोड़ा हटकर है। साहित्यिक और देहाती भाषा का अंतर हिंदी क्षेत्र में ही अधिक है। खड़ी बोली जो साहित्य की भाषा कही जाती है तथा व्रज या अवधी में जितना अंतर देखने को मिलता है, उतना अन्य प्रादेशिक भाषाओं और उनकी आंचलिक बोलियों के बीच में नहीं।
बँगला, मराठी, मलयालम, तेलुगु या कन्नड़ में लेखक अपनी आंचलिक बोलियों के शब्दों को धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं या यों कहिए, उनके क्षेत्र में साहित्यिक भाषा और आम बोली घुल-मिल गई हैं। इसलिए उनके नाटकों और कवि-सम्मेलनों में आम लोग काफी संख्या में पहुँचते हैं और उनका आनंद लेते हैं।
साहित्यिक भाषा और आंचलिक भाषा में अधिक अंतर होना पिछड़ेपन की निशानी है। हिंदीभाषी प्रदेश-बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान-देश के सबसे पिछड़े क्षेत्र हैं।
हिंदी का यह दुर्भाग्य है कि इसके क्षेत्र में आम लोगों की भाषा और भद्रजन की भाषा में काफी अंतर है। कवि और कथाकार आंचलिक भाषाओं के शब्दों को अछूत समझते रहे हैं।
इधर इस प्रवृत्ति में कुछ बदलाव आया है और व्रज तथा अवधी-जैसी सहेली भाषाओं के शब्दों को हिंदी रचनाओं-विशेषरूप से नई कविता-में अपनाया जा रहा
यह कहना सही नहीं है कि भारत की प्रादेशिक भाषाओं में जो समरूप और समार्थी शब्द मिलते हैं उसमें अधिकांशतः संस्कृत के तत्सम शब्द हैं और इसलिए संस्कृत के तत्सम शब्दों को आंचलिक भाषाओं के शब्दों पर वरीयता देनी चाहिए।
आंचलिक भाषाओं के कुछ शब्द तो ऐसे हैं जो देश की सीमाओं को पार कर गए हैं। व्रजभाषा का ‘सूखो’ शब्द ज्यों-का-त्यों रूसी भाषा में इसी अर्थ में मिलता है। यदि इस विषय पर सर्वेक्षण और शोध किया जाए तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आएँगे।
भरत ने संवादों का विवेचन लेखक और अभिनेता दोनों की दृष्टि से किया है। भाषा, वाक्य-विन्यास और आंचलिकता का रूपण लेखक के लिए उपयोगी हो सकता है और स्वरभेद, काक, स्वराघात और विराम के विषय अभिनेता के लिए महत्वपूर्ण हैं।
भरत की मौलिकता निम्नलिखित बिंदुओं पर स्पष्ट देखी जा सकती है
(1) काकु (स्वर-परिवर्तन) का साकांक्ष तथा निराकांक्ष रूपों में विभाजन और उनकी सरल व्याख्या।
(2) संवादों को रसमय और नाटकीय बनाने के लिए संगीत तथा लय-ताल के प्रयोग पर विशेष बल।
(3) पाश्चात्य विद्वानों ने ध्वनि और उससे संबंधित मानव अवयवों-फुफ्फुस स्वरयंत्र (Larynx) और मुख पर विस्तार से लिखा है और भरत की भाँति वे भी स्वरदीपन के तीन स्तर-मंद्र, मध्य और तार-मानते हैं। किंतु बोलने वाला, विशेष रूप से गायक अपने मुख से निकलने वाले स्वर के दीपन स्तर की पहचान कैसे करे ?
पाश्चात्य चिंतन इस दिशा में कोई मार्ग-निदर्शन नहीं करता। भरत ने स्वरदीपन के अनुभूति पक्ष को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार मंद्र स्वर की अनुभूति का स्थान उदर, मध्य स्वर की अनुभूति का स्थान कंठ और तार स्वर की अनुभूति का स्थान मूर्धन्य है। गायक और वक्ता शरीर को इन स्थानों से स्वर के दीपन स्तर की पहचान कर सकते हैं और तदनुसार उसमें संशोधन कर सकते हैं।