एक अभिनेता को Abhinay Me Ango ka Prayog की बारिकियो से परिचित होना चाहिये। अभिनय मैं शरीर के प्रत्येक अंग का प्रयोग अलग अलग तरीके से अलग अलग भाव भंगिमा के लिए एवं एक अलग चरित्र निर्माण के लिए प्रयोग किया जाता है।
वक्षस्थल नाट्यशास्त्र में वक्षस्थल की 5 स्थितियाँ बताई गई हैं :
1- आभुग्न : पीठ नीचे की ओर उठी हुई, कंधे झुके हुए होते हैं और छाती कुछ शिथिल। इसका प्रयोग संभ्रम, शोक, मूर्छा, भय, व्याधि, हृदयशूल, शीत स्पर्श, लज्जा और वर्षा से भींगने के अभिनय में करना चाहिए।
2- निर्भुग्न : पीठ नीची और दृढ़ हो, कंधे सीधे हों और छाती उठी हुई हो। इसका प्रयोग दृढ़ता, भाव-विस्मय, सत्यवचन तथा गर्व के प्रदर्शन और दर्पपूर्ण वाक्य ‘मैं ही हूँ’ आदि बोलने में किया जाता है।
3- प्रकंपित : छाती का ऊपर-नीचे होना। हँसना, रोना, खाँसी, हिचकी, श्वास और दुःख के अभिनय में इसका प्रयोग होना चाहिए।
4- उद्वाहित : छाती को फुलाना। इसका प्रयोग दीर्घ उच्छ्वास, अँभाई और ऊपर देखना आदि क्रियाओं में होता है।
5- सम : छाती का स्वाभाविक दशा में होना। इसका प्रयोग सामान्य और सौष्ठवयुक्त स्थितियों में किया जाता है।
पार्श्व कर्म बगलों की 5 क्रियाएँ बताई गई हैं
1- नत : कमर की ओर बगलें झुकी हों और कंधा थोड़ा आगे निकला हो।
किसी के पास आने पर और उससे मिलते समय बगलें इसी स्थिति में होती हैं।
2- समुन्नत : कमर के साथ बगलें उठी हुई हों और बाँहें भी उन्नत हों। पीछे हटने के समय बगलें इसी दशा में होती हैं।
3- प्रसारित : दोनों बगलों को फैला देना। प्रसारित बगलों से अति प्रसन्नता का भाव प्रगट किया जाता है।
4- विवर्तित: बगल और पीठ को घमा देना। पीछे घूमते समय इस मुद्रा का प्रयोग होता है।
5- अपसृत : बगलों का पीछे से सामने लौट आना। सामने घूमते समय बगलें इसी दशा में रखी जाती हैं।
उदर कर्म उदर की 3 अवस्थाएँ होती हैं :
1- क्षाम : पिचका हुआ पेट हास्य, रुदन, निःश्वास और सँभाई में उदर इसी स्थिति में रहता है।
2- सल्व : लटका हुआ पेट रोग, तपस्या, थकावट भूख अथवा उपवास में उदर सल्व अवस्था में होता है।
3- पूर्ण : भरा हुआ पेट रोग, स्थूलता और अधिक भोजन कर लेने में उदर का पूर्ण रूप होता है।
कटि कर्म कटि की पाँच स्थितियाँ बताई गई हैं
1- छन्ना : मध्य में लटकी हुई कमर। व्यायाम, भ्रांति और पीछे घूमकर देखने में कमर इस दशा में रहती है। 2. निवृता : सामने की ओर घूमी हुई और उठी हुई कमर। गोला घुमाते समय कमर इसी स्थिति में होती है। 3. रेचिता : सब तरफ घूमती हुई कमर। गोल चक्कर लगाते समय कटि का यही रूप होता है। 4. कपिता : तीव्रता से आड़ी-तिरछी हिलती हुई कमर। कुबड़े और बौने आदमियों की कमर इसी प्रकार सक्रिय रहती है।
5- उवाहिता : नितंब और पार्श्व से धीरे से उठी हुई कमर अर्थात् नितंब और पार्यों को धीरे-धीरे उठाना। मोटे आदमियों और चंचल स्त्रियों की चाल के समय कमर इसी प्रकार गतिशील रहती है।
ऊरू (पिंडलियाँ) पैरों की पिंडलियों की गति 5 प्रकार की बताई गई है
1- कंपन : एड़ी के अग्रभाग को बाहर झुकाना और उठाना।
निम्न कोटि के पात्रों की पिंडलियाँ भय और सामान्य दशा में इसी स्थिति में होती हैं।
2- वलन : घुटना अंदर की ओर कर लेना।
स्त्रियों की स्वच्छंद गति में पिंडलियाँ इसी प्रकार हरकत करती हैं
3- स्तंभन : पैरों को स्थिर रखना। भय और अवसाद में पिंडलियाँ स्तंभित हो जाती हैं।
4- उद्वर्तन : वलित पिंडली को स्थिर रखना। व्यायाम और तांडव नृत्य में पिंडलियाँ इसी स्थिति में रहती हैं।
5- निवर्तन : एड़ी के अग्रभाग को अंदर की ओर सिकोड़ लेना। परिक्रमा करते समय पिंडलियाँ इसी दशा में हो जाती हैं।
जाँघ की क्रियाएँ जाँघ की गति पाँच प्रकार की बताई गई है :
1- आवर्तित : बायाँ पैर दाईं ओर कर लेना और दायाँ पैर बाईं ओर कर लेना।
संस्कृत नाटकों में जब विदूषक मंच पर परिक्रमा करता है तब उसकी जाँघे इसी अवस्था में हो जाती थीं। वैसे जाँघों की यह मुद्रा उस समय होती है जब हम विश्रामावस्था में अथवा शीतातुर होते हैं।
2- नत : जब घुटने मुड़े हों तथा जाँघे झुक जाती हैं। कुर्सी आदि पर बैठते समय जाँघे इस अवस्था में हो जाती हैं।
3- क्षिप्त : जाँघ को आगे फेंकना। व्यायाम, योग और तांडव नृत्य में इस मुद्रा का प्रयोग होता है।
4- उद्वाहित : जाँघ को ऊपर उठाना । टेढ़ी चाल और तांडव नृत्य में इसका प्रयोग किया जाता है।
5- परिवृत : जाँघ को पीछे घुमाना । इस क्रिया का प्रयोग भी तांडव नृत्य में होता है।
पाद कर्म पैरों की 5 गतियाँ होती हैं
1- उद्घटित : पैर के पंजे के बल खड़े होकर एड़ी को भूमि पर गिराना। इसका प्रयोग नृत्य में होता है।
2- सम : पैर स्वाभाविक अवस्था में समतल भूमि पर स्थित हों। समतल भूमि पर सामान्य रूप से खड़े होने पर पैर इसी दशा में रहते हैं।
3- अग्रतल संचर : एड़ी उठी हुई और पंजा जमीन पर हो। इसका प्रयोग कूदना, ठोकर लगाना, जमीन पैरों से पीटना, घूमना और किसी चीज को फेंकना आदि क्रियाओं और नृत्य की रेचक मुद्राओं में किया जाता है।
4- अंचित : इस मुद्रा में एड़ी जमीन पर रहती है, पंजा ऊपर उठा रहता है और उँगलियाँ सिकुड़ी होती हैं। इसका प्रयोग एड़ी के बल चलने, घूमने, लौटने और पैर से मारने आदि क्रियाओं और नृत्य की विभिन्न भ्रामरी चालों में होती है।
5- कुंचित : एड़ी उठी हो और पंजा तथा पैर का मध्यभाग सिकुड़ा हो। – इसका प्रयोग ऊपर चढ़ने, घूमने, लौटने, आदि क्रियाओं और नृत्य की अतिक्रांता चाल में होता है।
भरत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पाद, ऊरू (पिंडली) और जाँघ का प्रयोग एक साथ होना चाहिए। ये तीनों अंग मिलकर कार्य करते हैं। जिधर पैर चलते हैं, उधर ही पिंडली और जाँघ चलती हैं। पैर, जाँघ, पिंडली और कमर की सम्मिलित गति ही चारी कहलाती है जिसे सामान्य भाषा में चाल कहते हैं और जिसका प्रयोग शास्त्रीय नृत्य में होता है।
नाट्यशास्त्र में चारी दो प्रकार के बताए गए हैं
1- भौमी- जिसमें दोनों पैर भूमि पर रहते हैं।
2- आकाशिकी- जिसमें एक या दोनों पैर जमीन से ऊपर उठते और गिरते हैं या ऊपर स्थिर रहते हैं। चारी का प्रयोग शास्त्रीय नृत्य में होता है। इसलिए हम इसकी चर्चा विस्तार से नहीं कर रहे।