Abhinay Me Ango ki Kriya-pratikriya अभिनय मे अगों की क्रिया-प्रतिक्रिया

Abhinay Me Ango ki Kriya-pratikriya

एक कुशल अभिनेता को Abhinay Me Ango ki Kriya-pratikriya करने और सामंजस्य की निपुणता होनी चाहिये । संवाद और भाव भंगिमा के साथ अंगों के परिचालन और सामंजस्य से अभिनेता सीधे दर्शक से जुड जाता है ।

 Action-Reaction of limbs in Acting

सिर की मुद्राएँ : इनकी संख्या तेरह बताई गई है :
1- आकंपित, 2- कंपित, 3- द्युत, 4- विद्युत, 5- परिवाहित, 6- आधूत, 7- अवधूत, 8- अंचित, 9- निहंचित, 10- परावृत, 11- उत्क्षिप्त, 12- अधोगत, 13- लोलित।

1 –  आकंपित : धीरे-धीरे सिर को ऊपर-नीचे हिलाना। इसका प्रयोग संकेत करने, नापने, कसने, प्रश्न करने, निर्देश देने और सामान्य वार्तालाप में होता है।

2 –  कंपित : सिर को जोर-जोर से कई बार ऊपर-नीचे हिलाना। क्रोध, ऊटपटांग बकना, धमकी देना, प्रश्नों की बौछार करना और स्नान करना आदि क्रियाओं में सिर की यही मुद्रा रहती है।

3 –  युत : सिर को धीरे-धीरे दाएँ-बाएँ हिलाना। इसका प्रयोग विस्मय, विश्वास, अन्यमनस्कभाव दिखाने तथा मना करने में किया जाता है।

4 – विद्युत : सिर को द्रुतगति से दाएं-बाएँ हिलाना। ठंड लगने, भयभीत होने, पीड़ित होने, बुखार आने और मद्यपान के प्रारंभ में सिर की यही क्रिया होती है।

5 – परिवाहित : सिर को बाईं और दाईं ओर बार-बार घुमाना। यह सब विस्मय, हर्ष, स्मरण, चिंतन, वियोग, असहनीय दशा और सामान्य कार्य संपादन के समय रहती है।

6 – आधूत : सिर को एक बार तिरछा उठाना। गर्व प्रदर्शन, खड़े होकर बगल की ओर ऊपर देखना और आत्मसम्मान प्रगट करना आदि अवस्थाओं के अभिनय में इसका प्रयोग किया जाता है।

7 – अवधूत : सिर को एक बार नीचे की ओर झटक देना। संदेश देना आह्वान करना और पास बुलाना आदि क्रियाओं में सिर इसी मुद्रा में होता है।

8 – अंचित : सिर का दाईं. या बाईं ओर कुछ झुकना। इसका प्रयोग व्याधि. मूर्छा, नशा, चिंता और दुःख प्रगट करने के लिए किया जाता है।

9 – निहंचित : बाँहों को ऊपर उठाकर सिर एक ओर झुका लेना। यह विशेष रूप से स्त्रियों की भंगिमा है। इसका प्रयोग गर्व, विलास, बिब्बोक विनोद, खिलखिलाकर हँसना, मोट्टायित और मान आदि में करती है।

10 – परावृत : सिर को पीछे की ओर घुमाना। इसका प्रयोग मुख मोड़ने और पीछे देखने में होता है।

11 – उत्क्षिप्त : सिर को ऊपर करके स्थिर रखना। आकाश की ओर से आती किसी वस्तु को देखना अथवा प्राप्त करना आदि क्रियाओं में सिर को इसी मुद्रा में रखा जाता है।

12 – अधोगत : मुँह नीचे कर लेना। लज्जा, प्रणाम और दुःख में यह मुद्रा बनाई जाती है।

13 – लोलित : सिर को चारों ओर घुमाना। मूर्छा, नशा, व्याधि, आवेश, निद्रा और प्रेतबाधा के अभिनय में इस मुद्रा का अभिनय किया जाता है।

आंगिक अभिनय मे नासिका (नाक) की मुद्राएँ
नासा कर्म नासिका की 6 मुद्राएँ बताई गई हैं

1 – नता : नासापुटों का बार-बार मिलकर चपटे हो जाना।

2 – मंदा : नासिका नीचे हो जाना।

3 – विकृष्ट : नासापुटों का फूल जाना।

4 – सोच्छ्वास : नाक में साँस भर लेना।

5 – विकूड़िता : नाक सिकोड़ना।

6 – स्वाभाविक : नासिका की स्वाभाविक स्थितियाँ।

अभिनय में प्रयोग
1 – नता : इसका प्रयोग स्त्रियों को मनाने में करना चाहिए।

2 – मंदा : शांति, उत्सुकता, चिंता और शोक की अवस्थाओं में नासिका इसी स्थिति में रहती है।

3 – विकृष्ट : तीव्र गंध, श्वास, रोष, भय और दुःख में नासिका इसी रूप में रखी जाती है।

4 – सोच्छ्वास : मधुर गंध और दीर्घ उच्छ्वास में इसका प्रयोग होता है। 

5- विकूड़िता : घृणा, असूया भावों में नासिका की यही दशा होती है।

6 – स्वाभाविक : शेष भावों में स्वाभाविक स्थिति रहती है।

कपोल कर्म कपोलों की 6 क्रियाएँ बताई गई हैं :
1 – क्षाम : लटके और पिचके हुए।

2 – फुल्ल : फूले हुए।

3 – पूर्ण : पूर्ण और उन्नत।

4 – कंपित : काँपते हुए।

5 -कुचित : सिकुड़े हुए।

6 – सम : स्वाभाविक दशा।

अभिनय में प्रयोग
1 – क्षाम : दुःख में क्षाम दशा रहती है।

2 – फुल्ल : हर्ष और आनंद में कपोल फूले हुए रहते हैं।

3 – पूर्ण : पूर्ण कपोल उत्साह और गर्व में रखे जाते हैं।

4 – कंपित : रोष और हर्ष में कपोल काँपते हैं।

5 – कंचित : शीत, भय, ज्वर और रोमांचकारी स्पर्श में कपोल कुंचित हो जाते हैं।

ठोड़ी की मुद्राएँ
ठोड़ी की 6 अवस्थाएँ बताई गई हैं जो दाँतों की क्रियाओं के अनुसार होती हैं

1 – कुट्टन : दाँत किटकिटाना।

2 – खंडन : दाँतों को बार-बार चबाना।  

3 – छिन्न : दाँतों को जोर से भींचना।  

4 – लोहित : दाँतों को जीभ से चाटना।  

5 – चुक्कित : दाँतों को उठाकर अलग कर लेना।  

6 – संदष्ट : दाँतों से ओठ काटना।  

दांतों की स्वाभाविक दशा।
अभिनय में प्रयोग
1 – कुट्टन : यह क्रिया भय, क्रोध और शीत में की जाती है।

2 – खंडन : जप, अध्ययन, भक्षण और वार्तालाप में।

3 – छिन्न : व्याधि, भय, शीत, व्यायाम, रुदन और मरण में।

4 – लोहित : लल्लो-चप्पो करते समय।

5 – चुक्कित : अँभाई लेने में।

6 – संदष्ट : क्रोध में।

7 – सम : शेष भावों में ठोड़ी की स्वाभाविक दशा रहती है।

 

मुख कर्म
मुख की 6 मुद्राएँ बताई गई हैं
1 – विनिवृत : सामने को स्थिर और खुला हुआ।

2 – विद्युत : तिरछा फैला हुआ।

3 – निर्भुग्न : नीचे की ओर झुका हुआ।

4 – भुग्न : कुछ फैला हुआ।

5 – विवृत : ओठ फैले हुए।

6 – उद्वाही : ऊपर उठा हुआ।

अभिनय में प्रयोग
1 – विनिवृत : इस मुद्रा का प्रयोग असूया, ईर्ष्या, कोप, अवज्ञा आदि में किया जाता है।

2 – विद्युत : रोकने और निषेध करने में यह मुद्रा रखी जाती है।

3 – निर्भुग्न : गंभीर अवलोकन में यह मुद्रा रहती है।

4 – भुग्न : यह दशा लज्जा, निर्वेद, उत्सुकता, चिंता और मंत्रणा में रहती है।

5 – विवृत : यह भंगिमा, भय, शोक और हास्य में प्रयुक्त होती है।

6 – उद्वाही : अभिमान, निरादर, कोप, किसी को जाने के लिए कहना, ‘ऐसा ही है कहना, और स्त्रियों की लीला में इस मुद्रा का प्रयोग होता है। लीला नायिका के उस आचरण को कहते हैं जिसमें वह मधुर और प्रिय शब्दों और चेष्टाओं के द्वारा नायक की ऐसी नकल करती है जिसके कई अर्थ निकाले जा सकें।

ग्रीवा कर्म गर्दन की क्रियाएँ 9 प्रकार की हैं
1 – समा : स्वाभाविक स्थिति।

2 – नता : झुकी हुई।

3 – उन्नता : उठी हुई।

4 – त्र्यस्त : कंधे की ओर झुकी हुई।

5 – रेचित : घूमती हुई और कपित।

6 – कुंचित : मस्तक सहित दबी हुई।

7 – अंचित : मस्तक सहित पीछे की ओर मुड़ी हुई।

8 – वलिता : बगल की ओर झुकी हुई।

9 – विव्रता : सामने की ओर मुख करने पर ग्रीवा की स्थिति।

अभिनय में प्रयोग
1 – समा : इसका प्रयोग ध्यान, जप और सहज भाव होता है।

2 – नता : अलंकारों को धारण करते समय और कंठ को विश्राम देने में गर्दन को इस स्थिति में रखा जाता है।

3 – उन्नता : ऊपर देखने में गर्दन इस दशा में रहती है।

4 – त्र्यस्त : यह भंगिमा दुःख प्रगट करने और कंधों पर भार वहन करने में बनाई जाती है।

5 – रेचित : नृत्य और दही मथने में इसका प्रयोग होता है।

6 – कुंचित : भार ढोने और गला बचाने में गर्दन कुंचित रहती है।

7 – अंचित : इसका प्रयोग गले को खींचने, ऊपर देखने और फाँसी पर लटकाने पर होता है।

8 – वलिता : गर्दन झुकाने पर यह मुद्रा रहती है।

9 – विवृता : सामने लक्ष्य की ओर मुख करने में गर्दन इस स्थिति में रहती ग्रीवा की उपर्युक्त चेष्टाएँ मस्तक का अनुसरण करती हैं अर्थात् ग्रीवा और मस्तक दोनों की गति युगपद रहती है।

मुखराग चेहरे का रंग 4 रूपों में परिवर्तित होता है :
1 – स्वाभाविक : मुखमंडल का स्वाभाविक वर्ण।

2 – प्रसन्न : खिला और चमकता हुआ चेहरा।

3 – रक्तवर्ण : लाल और सुर्ख चेहरा।

4 – श्याम वर्ण : मलिन और विवर्ण मुखमंडल।

अभिनय में प्रयोग
1 – स्वाभाविक : सामान्य स्थितियों में चेहरे का रंग स्वाभाविक रहता है।

2 – प्रसन्न : हास्य, शृंगार और अद्भुत रसों में चेहरा प्रसन्न मुद्रा में रहता है।

3 – रक्त वर्ण : वीर और रौद्र भावों में चेहरा रक्त वर्ण हो जाता है।

4 – श्याम वर्ण : करुण, भयानक और वीभत्स रसों में चेहरा विवर्ण हो जाता है। चेहरे को कृत्रिम रूप से विवर्ण करने के लिए नाट्य शास्त्र में एक उपाय बताया गया है-नाड़ी-स्थान को यत्नपूर्वक दबाएँ।

मखराग आंतरिक भावनाओं अर्थात् सत्व को प्रगट करता है इसलिए इसे शारीरिक के बजाय सात्विक अभिनय की श्रेणी में रखना चाहिए। सात्विक अभिनय के अंतर्गत जिस वैवर्ण्य का वर्णन किया गया है, उसमें मुखराग अंतर्निहित है। किंतु मखराग और वैवर्ण्य में यह अंतर है कि वैवर्ण्य समस्त शरीर के वर्ण में परिवर्तन इंगित करता है जबकि मुखराग केवल चेहरे के रंग से ताल्लुक रखता है।

हस्त कर्म सिर और उसके उपांगों के बाद हाथों का योगदान अभिनय में सबसे महत्वपूर्ण होता है। कोई ऐसी मानवीय क्रिया नहीं जिसका संपादन हाथों के बिना हो सके। जो क्रियाएँ हाथों से नहीं जुड़ी होतीं, उनमें भी हाथ गतिशील रहते हैं-जैसे वार्तालाप में।

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