जब शब्द भावनाओं को व्यक्त करने में असमर्थ होते हैं तो हाथ के इशारों का उपयोग किया जाता है। Abhinay me Hath Ke Ishare अभिव्यक्ति के संप्रेषण का माध्यम है। लंबे समय तक उपयोग के साथ, कुछ हाथ के इशारे भाव और चीजों के प्रतीक बन गए हैं। इसलिए बाद के आचार्यों ने नृत्य और चित्रात्मक अभिनय में अपने प्रतीकात्मक उपयोग को अधिक बताया। इनका आविष्कार रंगमंच की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया गया था, और इनका उपयोग मंचीय अभिनय में किया जाना चाहिए था।
अभिनय मे हस्त मुद्रायें Hand Gestures in Acting
1- शिवलिंग : इसमें बाएँ हाथ की अर्धचंद्र मुद्रा में दाएँ हाथ को शिखा मुद्रा में टिका दिया जाता है।
2- कर्तरी स्वस्तिक : इसमें दोनों हाथों के सहयोग से स्वस्तिक बना दिया जाता है अर्थात् हाथों को कलाई पर रखकर विपरीत दिशा में मोड़ दिया जाता
3- शकट : दोनों हाथों को भ्रमर मुद्रा में करके उनके अंगूठा और मध्यमा को फैला दें और फिर दोनों हाथों के अँगूठाओं को मिला दें।
4- शंख : शिखर मुद्रा में हाथों के अँगूठे मिला दिए जाएँ।
5- चक्र : दोनों हाथों को अर्धचंद्र मुद्रा में करके एक की हथेली को दूसरे की हथेली के ऊपर इस तरह रखा जाए कि दोनों अँगूठे बाएँ हाथ की ओर हों।
6- संपुट : चक्रहस्तों की फैली हुई उँगलियों को मोड़कर हथेली की ओर एक-दूसरे से गूंथ दिया जाए।
7- पाश : सूची मुद्रा में दोनों हाथों की तर्जनी उँगलियों के अग्र भाग को मोड़कर या झुकाकर परस्पर मिला दिया जाए।
8- कीलक : मृगशीर्ष मुद्रा में दोनों हाथों की कनिष्ठा उँगलियों को भीतर की ओर मोड़कर गूंथ लिया जाए।
9- मत्स्य : अँगूठा और उँगली फैलाकर एक हाथ की पीठ पर दूसरे हाथ की हथेली रख दी जाए।
10- कर्म : चक्रहस्त मुद्रा में अंगूठा और कनिष्ठा को छोड़कर शेष सभी गलियों को मोड़कर दोनों हथेलियों को परस्पर गूंथ लिया जाए।
11- वराह : मृगशीर्ष हाथों में एक को दूसरे के ऊपर इस प्रकार रखा जाए कि एक हाथ के अंगूठा से दूसरे हाथ की कनिष्ठा मिली हो।
12- गरुड़ : अर्धचंद्र मुद्रा में दोनों हाथों को उत्तान दशा में कलाई पर इस पकार तिरछा फैलाया जाए कि दोनों के अंगूठे आपस में गँथ जाएँ।
13- नागबंध : सर्पशीर्ष मुद्रा में दोनों हाथों की कलाई पर हथेलियाँ एक ही दिशा में करके स्वस्तिक बना दिया जाए।
14- खट्वा : चतुर मुद्रा में दोनों हाथों को आमने-सामने कर दें, दोनों की तर्जनी और अँगूठा ऊपर सीधा कर दें और दोनों की मध्यमा और अनामिका मोड़कर एक-दूसरे के सामने कर दें। _
15- भैरुंड : कपित्थ मुद्रा में दोनों हाथों की कलाई और अँगूठा का पृष्ठ भाग मिला दिया जाए। भैरुंड ये मद्राएँ किसी विशेष भाव या कार्य का बोध नहीं करातीं। कीलक को छोड़कर शेष सभी मुद्राओं का प्रयोग प्रतीक रूप में बताया गया है। कूर्म, मत्स्य और वराह आदि मुद्राओं का प्रयोग उन पशुओं को प्रतीक रूप में प्रस्तुत करने के लिए किया जाता है जिनका नाम उन्हें दिया गया है। इस प्रकार इन मुद्राओं का प्रयोग विशेष रूप से चित्रमय अभिनय में होता है । कीलक मुद्रा को स्नेह और हास-परिहास के अभिनय में उपयोगी बताया गया
नाट्यशास्त्र संग्रह में 6 नवीन मुद्राएँ संयुक्त हस्त की बताई गई हैं।
1- स्वस्तिक, 2- पताक स्वस्तिक, 3- कलश, 4- तिलक, 5- वैष्णव, 6- कर्तरी स्वस्तिक।
नंदिकेश्वर के ‘अभिनय दर्पण’ में भगवान के विभिन्न रूप और देवी-देवताओं की प्रतीक हस्तमुद्राओं का उल्लेख किया गया है। विभिन्न जातियों और वर्णों तक के लिए हस्तमुद्राएँ बताई गई हैं। नाट्यशास्त्र में आगे चलकर संपूर्ण भुजा की विभिन्न गतियों का वर्णन किया गया है, जिनकी संख्या 20 बताई गई है :
1-उत्कर्षण : भुजा को ऊपर उछालना 2- विकर्षण : भुजा को पीछे खींचना 3- व्याकर्षण : मुद्रा आगे करना या फैलाना 4- पकड़ना 5- कसना 6- आह्वान करना 7- पीड़ित करना 8- मिलाना 9- हटाना 10- बचाना 11- फेंकना 12- दूर करना 13- धुनना 14- अर्पण करना 15- चेतावनी देना 16- तोड़ना 17- काटना 18- फोड़ना 19- दबाना 20- पीटना
इन क्रियाओं का प्रयोग प्रसंग के अनुसार अर्थ और भाव की अभिव्यक्ति के लिए होना चाहिए। मुद्राओं के अतिरिक्त हाथों की सामान्य गति तीन प्रकार की बताई गई है।
1 – ऊपर की ओर
2 – नीचे की ओर
3 – बगलों की ओर
इनका प्रयोग नेत्र, भ्रू और मुखराग के सहयोग से अभिनय में होना चाहिए। चतुर अभिनेता द्वारा हाथों का प्रयोग उनकी मुद्रा, स्थान, मात्रा और सिद्धांत समझकर करना चाहिए अर्थात् किसी दृश्य में हाथों का संचार करते समय अभिनेता को यह ध्यान में रखना चाहिए कि हाथ किस मुद्रा में हैं, उन्हें शरीर के किस स्थान पर रखा जा रहा है, उनके संचार की अवधि कितनी है, उनकी गति का शास्त्रीय सिद्धांत क्या है और दृश्य में क्या कार्य अपेक्षित है?
इस सिद्धांत को और स्पष्ट यों किया गया है। उत्तम पात्र हाथों को ललाट के पास, मध्यम पात्र वक्षस्थल के पास और अधम पात्र नीचे की ओर रखते हैं। श्रेष्ठ पात्र हाथों का प्रयोग अल्प, मध्यम पात्र सामान्य मात्रा में और अधम पात्र अधिक मात्रा में करते हैं। उत्तम और मध्यम पात्रों के द्वारा हस्तमुद्राओं का प्रयोग शास्त्र-सम्मत भावाभिव्यक्ति के लिए किया जाता है। अधम पात्रों द्वारा उनका प्रयोग लौकिक कर्म और स्वभाव के अनुसार किया जाता है।
ऐसी परिस्थितियाँ भी हो सकती हैं, जब हाथों का प्रयोग अवांछनीय और अस्वाभाविक हो। नाट्यशास्त्र में ऐसी स्थितियाँ स्पष्ट कर दी गई हैं जब कोई पात्र उदास, मूर्छित, लज्जित, घणा, शोक और ग्लानि से अभिभूत, सुप्त, निश्चेष्ट, तंद्रित, जड़, रुग्ण, वृद्ध, भयभीत, उन्मत्त, चिंताग्रस्त, समाधिस्थ, वंदी, भ्रमित, चोटिल, ठंड से व्याकुल, लूला-लँगड़ा और बाढ़ या नदी में बहता हुआ हो, तब उसे अभिनय में हाथा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसी दशा में उसे वाणी और स्वर-परिवर्तन का सहारा लेना चाहिए। जब दोनों हाथ अन्यत्र व्यस्त हों तब अर्थभरी दृष्टि और सविराम वाच्यात्मक अभिनय का प्रयोग करना चाहिए।