Abhinay Me Hatho ka Prayog  अभिनय में हाथों का प्रयोग

Abhinay Me Hatho ka Prayog

 कुशल कलाकार Abhinay Me Hatho ka Prayog  कर आकृति, चेष्टा, संकेत के माधयम से जनमानस (दर्शक) को आकर्षित करना चाहिए।हाथों की मुद्राओं की संख्या सीमित नहीं हो सकती। रुचि, अभ्यास और लोकाचार के अनुसार हाथों की मुद्राओं में परिवर्तन हो सकता है और उनकी संख्या घट-बढ़ सकती है।

आज की आवश्यकताओं के अनुसार हाथों के प्रयोग में अनेक परिवर्तन हो गए हैं और उपयुक्त मुद्राओं में से कुछ निरर्थक लग सकती हैं। यहां उन्ही मुद्राओं का वर्णन किया है जो सामान्यतः व्यवहार में आती हैं। इनके अतिरिक्त जो अन्य अर्थवान लौकिक हस्तमुद्राएँ हों, उनका प्रयोग रुचि के अनुसार रस और अर्थ को ध्यान में रखकर करना चाहिए।

आंगिक अभिनय में हाथों की मुद्रायें

भरत मुनि ने हाथों की मुद्राओं को दो वर्गों में बाँटा है

1 –  असंयुक्त हस्त, 2- संयुक्त हस्त

असंयुक्त हस्त असंयुक्त हस्त के 24 प्रकारों के लक्षण तथा प्रयोग नीचे दिए जा रहे हैं।

1  पताक : इस मुद्रा में सभी उँगलियाँ फैली और अँगूठा सिकुड़ा रहता है।

प्रयोग : ललाट प्रदेश से ऊपर उठाकर प्रहार करने, शाबासी देने, हर्ष एवं उल्लास जताने और तापने में इसका प्रयोग किया जाता है। दोनों हाथों को पताक मुद्रा में करके ऊपर-नीचे करने से प्रोत्साहन देना, भीड़ का कोलाहल, मृदंगवादन और पक्षियों का पर फड़फड़ाना भी प्रतीक रूप में संस्कृत नाटकों में दिखाया जाता था।

2  त्रिपताक : पताक मुद्रा में जब अनामिका उँगली मुड़ी हुई हो तब त्रिपताक मुद्रा बन जाती है।

प्रयोग : बुलाना, नीचे उतरना, वस्त्र उतारना, वस्त्र धारण करना, प्रवेश, प्रणय, ऊपर चढ़ना, पगड़ी व मुकुट धारण करना, नाक-कान व मुँह का स्पर्श करना, मांगलिक टीका लगाना और समझाना आदि क्रियाओं में इसका प्रयोग किया जाता है। त्रिपताक हस्त की अनामिका उँगली से आँसू पोंछना, तिलक लगाना गोरोचन लेना और बालों को छूना जैसे कार्य भी किए जाते हैं

3  कर्तरीमुख : जब त्रिपताक हस्त में तर्जनी उँगली मध्यमा उँगली के पीछे कर ली जाए और शेष उँगलियाँ नीचे मोड़ ली जाएँ तब यह मुद्रा कर्तरीमुख कहलाती है।

प्रयोग : इस मुद्रा के द्वारा गर्व, शौर्य, भव्यता, धैर्य, गंभीरता, सात्विकता और आशीर्वाद आदि उदात्त और हितसूचक भाव प्रदर्शित किए जाते हैं। आह्वान, पसीना पॉछना, सूंघना और निवारण आदि कार्यों में भी इसका प्रयोग होता है। स्त्रियाँ ऐसे हाथवालों को पकड़ती व फैलाती हैं और अपने शरीर को निहारती हैं।

4अर्धचंद्र : इस मुद्रा में हाथ की उँगलियाँ अँगूठा सहित झुक जाती हैं। इसका प्रयोग परिश्रम करने और टहलते समय होता है।

5अराल हस्त : यदि हाथ की तर्जनी धनु के समान मुड़ी हो, अँगूठा सिकुड़ा हो और शेष उँगलियाँ ऊपर उठी हों, तब इसे अरालमुद्रा कहा जाएगा।

इसका प्रयोग व्यायाम, दोहन, प्रस्थान करने और तलवार का दंड तथा माला पकड़ने में किया जाता है। अराल हस्त की अनामिका उँगली टेढ़ी कर देने से यह मुद्रा बन जाती है।

इसका प्रयोग ‘मैं नहीं’, ‘तुम नहीं’, ‘इसे न करो’, ‘उसे न करो’ आदि निषेधात्मक वाक्य बोलेते समय होता है। साथ ही आवाहन, विदाई देने और अवज्ञापूर्वक धिक्कारने में भी इसका प्रयोग किया जाता है।

7 मुष्टि : यदि हाथ की उँगलियाँ मुड़कर हथेली पर स्थित हो जाएँ और अंगठा उनके ऊपर हो तो मुष्टि बन जाती है। ऐसे हाथ को ऊर्ध्वमुख करके शंख बजाने और लिखने में प्रयुक्त किया जाता है। रास्ता चलने, रंगोली बनाने में इस हाथ को अधोमुख रखा जाता है।

विवाद या कुतर्क, पतन, बाधा और मरण का अभिनय करते समय हाथ को इस मुद्रा में करके विभिन्न दिशाओं में मोड़ा जाता है।

8शिखर : यदि मुष्टि का अँगूठा ऊपर उठा दिया जाए तो शिखर मुद्रा बन जाती है।

लगाम, स्स्सी, अंकुश और धनुष पकड़ने, तोमर तथा शक्ति चलाने, ओठ और पैर रंगने तथा बालों को काढ़ने या झाड़ने में इस मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।

9कपित्य : शिखर मुद्रा में तर्जनी को अँगूठे पर झुका देने पर कपित्थ मुद्रा बन जाती है।

तलवार, चक्र, तोमर, भाला, गदा, शक्ति, वज्र और बाण चलाने में इसका प्रयोग होता है।

10कटकामुख : जब कपित्थ हाथ में अनामिका और कनिष्ठा उँगलियाँ उठाकर टेढ़ी कर ली जाएँ तब कटकामुख हस्त बन जाता है।

छत्र पकड़ना, रास खींचना, पंखा झलना, सपना देखना, पीसना, लंबे डंडे का पकड़ना, मोतियों की माला को सँभालना और माला की डोरी, वस्त्रों का किनारा, मथनी तथा वाण खींचना आदि कार्यों में हाथ को इस मुद्रा में रखा जाता है।

11सूचीमुख: करकामुख हाथ में तर्जनी उँगली को ऊपर फैलाकर सूचीमुख मुद्रा बनायी जाती है। इस मुद्रा में हाथ की तर्जनी उँगली ऊपर उठाकर घुमाने से चक्र, तड़ित, पताका, मंजरी, बेल, पल्लव, लता, काल सर्प, वक्रमंडल और दीप का संकेत दिया जाता है। तर्जनी उठाकर दंड देने की धमकी भी दी जाती है।

तर्जनी को नीचे गिराकर और फिर ऊपर उठाकर, ‘यह काम आज ही होना चाहिए’-निर्देश दिया जाता है। तर्जनी को मुंह के पास ले जाकर सिकोड़ने और फैलाने से वाक्यों का अर्थ समझाया जाता है। तर्जनी कान के पास ले जाकर टेदा करने से जंभाई लेना और सोचना दिखाया जाता है।

तर्जनी को फैलाकर और कंपित करके ऊपर उठाने से ऐसा नहीं’, ‘एसा कहीं’ आदि निर्देश दिए जाते हैं।

रोष का प्रदर्शन करने के लिए तर्जनी को कंपित किया जाता है। तर्जनी को ललाट पर रखकर मैं ही हूँ’ गर्वोक्ति तथा क्रोध एवं शत्र का निर्देश दना दिखाया जाता है। इसी मुद्रा में तर्जनी से संकेत करते हए यह कौन है’ प्रश्नसूचक वाक्य बोलने का अभिनय किया जाता है। केश सँवारना, बाजूबंद तथा गंडाश्रय आभूषण पहनना और कानों का खुजलाना आदि क्रियाएँ सूचीमुख हाथ से की जाती हैं। भोजन परोसने का अभिनय भी इसी मुद्रा में किया जाता है।

12पद्मकोष : अँगूठा सहित सभी उँगलियों को मोड़कर विरल रूप में ऊपर करने से पद्मकोष हस्त बन जाता है।

ऐसे हाथ से बेल और कैथा जैसे फलों को पकड़ना, फलों को बिखेरना आदि कार्य किए जाते हैं और स्त्रियों के स्तन तथा डलिया का संकेत दिया जाता है।

13 सर्पशीर्षक : यदि सभी उँगलियाँ और अँगूठा मिले हों तथा हथेली नीचे की ओर हो तो सर्पशीर्षक मुद्रा बन जाती है।

ऐसे हाथ से सर्प का चलना दिखाया जाता है। साथ ही जल चढ़ाना, सींचना, थपथपाना और हाथी के उठे हुए मस्तक रगड़ना आदि क्रियाओं में इसी मुद्रा का प्रयोग होता है।

14मृगशीर्ष : यदि सभी उँगलियों को अधोमुख करके मिला दिया जाए और फिर अँगूठा और कनिष्ठा को ऊपर उठा दिया जाए तो मृगशीर्ष मुद्रा हो जाती है।

 ‘अभी ऐसा है’ ‘आज यही है’ आदि संवादों में हाथ इसी मुद्रा में रहता है। शक्ति उठाने, पासा फेंकने और पसीना पोंछने में हाथ को इसी दशा में रखा जाता है। जब नायिका कुट्टमित आचरण करती है तब उसके हाथ इसी मुद्रा में रहते हैं। नायिका कुट्टमित व्यवहार तब करती है जब नायक द्वारा उसके केश, वक्ष और अधर आदि का स्पर्श किया जाता है और वह आनंद का प्रदर्शन करना चाहती है।

15 कंगुल : यदि अँगूठा, मध्यमा और तर्जनी सीधी खड़ी हों, अनामिका टेढी हो और कनिष्ठा उठी हुई हो तो कंगुल मुद्रा बन जाती है।

यह मुद्रा स्त्रियों के द्वारा प्रयोग में लाई जाती है। जब वे रोष में होती हैं तब उनके हाथ इसी मुद्रा में होते हैं।

16अलपम : इस मुद्रा में उँगलियाँ हथेली पर घूमी हुई, पार्श्वगत और बिखरी रहती हैं। तर्जनी थोड़ी सीधी रहती है। अंगूठा हथेली की ओर रहता

नहीं है‘ ‘तुम कौन होते हो ?’ आदि निषेधात्मक संवाद और बेतुकी बातें करते समय ऐसे हाथ प्रयोग में लाए जाते हैं। स्त्रियाँ जब आत्मप्रदर्शन करती हैं तब उनके हाथ इसी दशा में रहते हैं।

17चतुर : इस मुद्रा में कनिष्ठा ऊपर उठी रहती है, शेष उँगलियाँ सामने निकली रहती हैं और अँगूठा उनके नीचे स्थित रहता है। मुंहफट आचरण करना तथा कुतर्क और निर्लज्जता का प्रदर्शन करना आदि कायों में हाथ इसी मुद्रा में रखकर घुमाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त क्रीड़ा, स्नेह, बुद्धिचातुर्य, क्षमा, समर्थन, प्रणय, सहमति, मिलन, पवित्रता, चतरता, माधर्य, मदता सुशीलता, तर्क, विवाद, वैभव, दुभाग्य, गुण, अवगुण, यौवन आदि भावों और चेष्टाओं का प्रदर्शन भी चतुर हाथों से किया जाता

18भ्रमर : जब मध्यमा अँगूठा से मिली हो, तर्जनी टेढ़ी हो और शेष दो उँगलियाँ ऊपर फैली हों, तब भ्रमर मुद्रा बन जाती है। कमल और कमलिनी आदि लंबे डंठल वाले फूलों को तोड़ते समय हाथों की यही स्थिति रहती है। ऐसे हाथ को तेज आवाज के साथ नीचे करके डाँटने, शेखी मारने, शीघ्रता करने, ताल देने और विश्वास प्रगट करने आदि कार्यों का संपादन किया जाता है, कुंडल आभूषण भी इसी मुद्रा से इंगित किया जाता है।

19 हंसास्य : तर्जनी और मध्यमा निरंतर अँगूठा पर स्थित रहें और शेष दो उँगलियाँ ऊपर फैली रहें तब हंसास्य मुद्रा बन जाती है। ऐसे हाथ के अग्र भाग को कुछ स्पंदित करके शिथिलता, निस्सारता, लघुता, मृदुता, क्षुद्रता और चिपचिपाहट का बोध कराया जाता है।

20हंस पक्ष : इस मुद्रा में कनिष्ठा ऊपर उठी रहती है, अँगूठा सिकुड़ा रहता है और शेष उँगलियाँ अँगूठा के ऊपर एक साथ एक सीध में फैली रहती हैं।

पितरों को जल चढ़ाने, दान लेने, जबड़ा फकड़ने, ब्राह्मणों द्वारा आचमन करने और भोजन करने, पैर दबाने, ठोड़ी पकड़ने, लेपन करने और स्त्रियों के स्तन छूने में हाथ इसी स्थिति में रहता है। 

21संदंश : जब जराल हस्त में तर्जनी और अगटा मिले हर हो और होती के मध्य में स्थित हो, तब संदंश हस्त बन जाता है।

यह 3 प्रकार का होता है: 1- अग्रज-सामने की ओर 2- मुखज-मुख की ओर 3- पार्श्वगत-बगल की ओर इन तीनों के प्रयोग भिन्न-भिन्न रूप में होते हैं :

1 – अग्रज : ऐसे हाथ का प्रयोग पुष्प चयन, माला गूंथने, तिनका, पत्ती अथवा धागा पकड़ने और खीचने एवं सुई या कॉट को पकड़ने में किया जाता है।

2- मुखज: इस हाय का प्रयोग डाली से फूल लेने, दीया में बाती शलाका से ठीक करने और चिक्कार है कहने में होता है। इस मुद्रा में दोनों हाथों के द्वारा जनेऊ धारण, लक्ष्यवेधन, धनुष की डोरी खींचने, योग, ध्यान और थोड़ी मात्रा का बोध कराना आदि क्रियाओं में भी किया जाता है।

 3- पार्श्वगत : इस मुद्रा में बाएं हाथ के अग्र भाग को कुछ मोड़कर कुल्ला, इया और अभद्रता का प्रदर्शन किया जाता है।

स्त्रियों के द्वारा आँखों में अंजन लगाना, महावर रचना और निचोड़ना आदि कार्य भी इसी हाथ से किए जाते हैं।

4  –   मकल : जब हंसास्य हस्त की सभी उँगालिया और अंगठा का अग्रभाग उटा हो और मिला हुआ हो तब यह मुद्रा बन जाती है।

बलि चढाने, देव-पूजन, बंबन और भात खाने में इसी हाथ का प्रयोग होता है। कमल अन्य फूलों की कली का बोध भी इसी मुद्रा के द्वारा कराया जाता है। तिरस्कार, जगप्सा और शीव्रता के भावों को भी ऐसे हाथ से प्रगट किया जाता है।

5  –   ऊर्णनाभ : पनकोष हस्त की सभी उँगलियों और अंगूठे को सिकोड़कर आणिक अभिनय यह मुद्रा बनाई जाती है। सिर खुजाना, पत्थर उठाना और केश पकड़ना आदि क्रियाओं में इस हाथ का प्रयोग होता है। कुष्ठ रोगी होने का अभिनय भी ऐसे हाथ से किया जाता है।

6  –   ताम्रचूड़ : इस मुद्रा में मध्यमा और अँगूठा मिले रहते हैं, तर्जनी टेढ़ी रहती है और शेष उँगलियाँ मुड़कर हथेली पर स्थित हो जाती हैं। इस हाथ का प्रयोग कला, काष्ठा, निमेष और क्षण इकाइयों के द्वारा काल की गणना करने तथा संगीत में ताल देने में होता है। साथ ही चीखकर झिड़कने और डाँटने, विश्वास दिलाने और शीघ्रता दिखाने में भी इस हाथ का प्रयोग होता है। 

7  अर्धपताक : त्रिपाक हाथ में कनिष्ठा को टेढी करके झुका देने से अर्धपताक हस्त बन जाता है। छुरी और आरा चलाने में इस हाथ का प्रयोग होता है।

8  मयूर : कर्तरीमुख हाथ की अनामिका को अँगूठे से मिलाकर शेष उँगलियों को बाहर उठा हुआ रखने से इस मुद्रा की रचना होती है। ललाट पर तिलक लगाना, नदी में जल उछालना और बालों को फैलाना आदि कार्य इस हाथ से किए जाते हैं।

9  चंद्रकला : इसमें सूचीमुख हस्त के अँगूठे को फैलाकर तान दिया जाता है। बालिश्त से किसी वस्तु की लंबाई नापने में इस हाथ का प्रयोग होता है।

10  सिंहमुख : मध्यमा और अनामिका उंगलियों के अग्र भाग को अँगूठे से मिलाकर और शेष दोनों उँगलियों के अग्र भागों को सीधा खड़ा करने से यह मुद्रा बन जाती है।

जब वैदय आयर्वेद की औषधि-पाक तैयार करता है और उसका शोधन करता है, तब उसके हाथ इसी मुद्रा में रहते हैं। हवन करने में भी हाथ की यही स्थिति रहती है।

11  त्रिशूल : कनिष्ठा और अँगूठा को झुकाकर मिला देने और शेष तीनों उँगलियाँ सीधी खड़ी कर देने से यह मुद्रा बनाई जाती है। इस हाथ से तीन पत्ता वाले बेलपत्र का संकेत दिया जाता है।

12  व्याघ्र : मृगशीर्ष हाथ में कनिष्ठा और अँगूठा को झुकाकर यह मुद्रा बनाई जाती है। इसका प्रयोग चित्रमय अभिनय में होता है जिसका विवरण अध्याय-7 में दिया गया है।

13  अर्धसूची : जब कपित्थ हस्त में तर्जनी उँगली को ऊपर सीधा फैला दिया जाता है तब यह मुद्रा बन जाती है। इस हाथ के द्वारा पौधों के अंकुर, चिड़ियों के बच्चों और कीड़े-मकोड़ों का बोध कराया जाता है।

14  कटक : जब संदंश हाथ में मध्यमा और अनामिका के अग्र भागों को अँगूठा से मिला दिया जाता है तब हाथ इस मुद्रा में होता है। किसी वस्तु को देखने व बुलाने में तथा चलते समय हाथों की यही मुद्रा रहती

15  पल्ली : मयूरहस्त में मध्यमा उँगली को तर्जनी के पीछे मोड़कर ऊपरी भाग में मिला देने से यह मुद्रा बनती है। इस हाथ का प्रयोग भी चित्रमय अभिनय में किया जाता है ।

ये मुद्राएँ हैं-1, कर्तरीमुख, 2, कटकामुख, 3. सूचीमुख, 4. मृगशीर्ष, 5.सास्य, 6. संदंश, 7. ताम्रचूड़। अभिनय दर्पण के अनुसार इनकी रचना का विवरण नीचे दिया जाता है :

1 – कर्तरीमुख : त्रिपताक हस्त में कनिष्ठा टेढ़ी और झुकी हो तथा तर्जनी सीधी होकर बाहर फैली हो।

 2 – कटकामुख : तर्जनी उठी हुई हो और मध्यमा अँगूठे के अग्र भाग को छूती

3 – सूचीमुख : कटकामुख हस्त में तर्जनी को सीधा फैला दिया जाए।

4 – मृगशीर्ष : सर्पशीर्ष हस्त में कनिष्ठा और अँगूठा को तानकर सीधा फैला दिया जाए।

5 – हंसास्य : अँगूठा और तर्जनी दोनों मिला दिए जाएँ और शेष तीनों उँगलियाँ अलग-अलग हथेली की ओर मुड़ी और फैली हों।

6 – संदंश : पद्मकोष मुद्रा में उँगलियाँ बार-बार हटाई और मिलाई जाएँ।

7 – ताम्रचूड़ : मुकुल हस्त में तर्जनी मोड़ दी जाए किंतु वह हथेली को छूती न हो।

संयुक्त हस्त

संयुक्त हस्त के 13 प्रकारों के लक्षण और प्रयोग नीचे दिये जाते हैं

1 – अंजलि : दोनों हाथों को पताक मुद्रा में करके मिला दिया जाए। इसका प्रयोग देवता, गुरुजन और मित्रों को अभिवादन करने में किया जाता है ।

अभिवादन में प्रयोग करते समय इसकी तीन स्थितियाँ बताई गई हैं

1 –   वक्ष, 2 –   मुख, 3 –   मस्तक। अंजलि हस्त मस्तक पर रखकर देवताओं को, मुख पर रखकर गुरुजनों को और वक्ष पर रखकर मित्रों को अभिवादन किया जाता है। 

2 – कपोत : दोनों हाथों को सर्पशीर्ष मुद्रा में रखकर परस्पर मिलाने से यह मुद्रा बन जाती है।  इसका प्रयोग प्रणाम, गुरुजन के साथ वार्तालाप में तथा विनम्रता, शीत और भय के प्रदर्शन में किया जाता है। इतना करो’ ‘अभी यह न करो’ आदि अनुनय कथनों में भी हाथों को इस मुद्रा में रखा जाता है। इन्हीं हाथों की उँगलियों को परस्पर रगड़कर और फिर अलग करने से अप्रिय वचनों का बोध कराया जाता है।

3 – कर्कट : यदि दोनों हाथों की उँगलियाँ मिलाने पर एक-दूसरे के बीच से निकली हों तो कर्कट मुद्रा बन जाती है। इसका प्रयोग काम पीड़ित दशा में अंगड़ाई लेने, सोकर जागने पर जंभाई लेने, ठोड़ी थामने, शंख पकड़ने और मोटे शरीर के प्रदर्शन में किया जाता है।

4 – स्वस्तिक : यदि अराल मुद्रा में दोनों हाथों की कलाइयाँ मिली हों और हथेलियाँ उलटकर बाहर दिखती हों तो स्वस्तिक मुद्रा हो जाती है।

इसका प्रयोग मुख्य रूप से चित्र अभिनय में किया जाता है।

5 – कटका वर्धमान : इसे खटका वर्धमान भी कहा जाता है। यदि कटका मुख हाथों को एक-दूसरे की कलाई पर रखकर स्वस्तिक रूप किया जाए तो यह मुद्रा बन जाती है।

इसका प्रयोग प्रणाम करने और शृंगार भाव व्यक्त करने में किया जाता

6 – उत्संग : इस मुद्रा में दोनों हाथों को अराल मुद्रा थाली के रूप में उल्टा करके कंधों के ऊपर स्थिर कर लिया जाता है।

मेहनत के कामों में इन हाथों का प्रयोग होता है। रोष और ईर्ष्या का भाव भी ऐसे हाथों से प्रगट किया जाता है।

7 – निषध : इस मुद्रा में बाएँ हाथ को दाएँ हाथ की कुहनी के नीचे और दाएँ हाथ को बाएँ हाथ की कुहनी के नीचे दबा लिया जाए और दाएँ हाथ की मुट्ठी भली प्रकार बँधी हो। इस मुद्रा के द्वारा धैर्य, गर्व, मद, सौष्ठव, उत्सुकता, उदंडता और विक्रय के दायित्व से मुक्ति, हठ और दृढ़ता के भावों का प्रदर्शन किया जाता है।

8 – दोला : दोनों कंधों को शिथिल रखते हुए और हाथों को पताक मुद्रा में करके नीचे ढीला लटका देने पर यह मुद्रा बन जाती है। संभ्रम, विषाद, मूर्जा, नशा, आघात, आवेग और रुग्णता की दशा में हाथों को इसी स्थिति में रखा जाता है।

9 – पुष्प पुट : यदि सर्पशीर्ष हस्त की उंगलियों को एक कतार में दूसरे सर्पशीर्ष हाथ के पास सटा दिया जाए तो पुष्प पुट मुद्रा बन जाती है। इस मुद्रा में फल-फूल और धान्य आदि नाना प्रकार के पदार्थों का लेना-देना तथा जल का लाना और ले जाना दिखाया जाता है।

10 – मकर : यदि दोनों हाथों को पताक मुद्रा में ऊपर उठा दें, अँगूठा नीचे रखें और फिर हाथों को अधोमुख करके एक-दूसरे की पीठ पर रख दें तो मकर मुद्रा बन जाती है। इस मुद्रा का प्रयोग चित्र-अभिनय में किया जाता है।

11 – गजदंत : इसको बनाने के लिए कंधे सामान्य दशा में रखे जाएँ और दोनों सर्पशीर्ष मुद्रा में करके एक-दूसरे पर रखते हुए कंधों से सटा लिए जाएँ। भारी बोझ ढोने, स्तंभ पकड़ने और पत्थर आदि उखाड़ने में हाथ इसी स्थिति में रहते हैं।

12 – अवहित्य : शुकतुंड मुद्रा में दोनों हाथों को छाती के सामने धीरे से हथेली छाती की ओर करके मिला देने से यह मुद्रा बन जाती है। इसके द्वारा दुर्बलता, उत्कंठा और शरीर के पतलेपन का आभास कराया जाता है। अंग प्रदर्शन और विश्वास जताने के समय भी हाथों को इस मुद्रा में रखा जाता है।

13 – वर्धमान : यदि एक हाथ मुकुल मुद्रा में करके दूसरा हाथ कपित्थ मुद्रा में करके उसके ऊपर सटा दिया जाए तो वर्धमान हस्त बन जाते हैं। इसका प्रयोग खिड़की और झरोखा आदि के खोलने में किया जाता है।

हाथों की मुद्राओं की संख्या सीमित नहीं हो सकती। रुचि, अभ्यास और लोकाचार के अनुसार हाथों की मुद्राओं में परिवर्तन हो सकता है और उनकी संख्या घट-बढ़ सकती है। आज की आवश्यकताओं के अनुसार हाथों के प्रयोग में अनेक परिवर्तन हो गए हैं और उपयुक्त मुद्राओं में से कुछ निरर्थक लग सकती हैं।

अभिनय अलंकार किसे कहते हैं ? 

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