अभिनय मे रसों का महत्वपूर्ण स्थान है। Abhinay Me Raso Ka Prayog ही अभिनेता के भावों को दर्शक की मन:स्थिति तक पहुचाता है। कलाकार के द्वारा प्रस्तुत भावों से प्रेक्षक की मानसिक स्थिति के सरलीकरण simplification होने से प्रेक्षक के मन में उठने वाले भावों को कलाकार के द्वारा प्रस्तुत भावों से पहचान होने के कारण रस की प्राप्ति होती है।
कला के आस्वादन के समय व्यक्ति निजी सुख-दुःख के भावों एवं चिन्ताओं से मुक्ति पा लेता है, जिस कारण कलाकार द्वारा प्रस्तुत अनुभूतियों को प्रेक्षक अपने भावों में अभिव्यक्त देखता है। यह अभिव्यक्ति ही रसानुभूति होती है जहां प्रेक्षक एवं कलाकार की मानसिक स्थिति में कोई दूरी नहीं रहती अतः दोनों ही तादात्मय की स्थिति में होते हैं।
Abhinay Me Raso Ka Prayog
अभिनय के बाद विभिन्न रसों में इनका प्रयोग भी बताया गया है।
1- शृंगार : आलस्य, उग्रता और जुगुप्सा के अलावा सभी संचारी और सात्विक भाव शृंगार रस में प्रयुक्त होते हैं।
1- शृंगार : इसके दो प्रकार बताए गए हैं-1- संयोग, 2- वियोग।
संयोग श्रृंगार- इष्टजन से संपर्क, सुंदर प्रासाद, सुहावना मौसम, मनोरम, उपवन, अलंकार, आलेपन, श्रवण, दर्शन, क्रीड़ा, लीला और उपभोग आदि उटी से उत्पन्न होता है। इसका अभिनय नेत्रों का विशिष्ट संचालन, भ्रूक्षेप, कटाक्ष, मृदुवचन, ललित एवं मनोरम आंगिक चेष्टाओं के द्वारा करना चाहिए। इसमें आलस्य, उग्रता और जुगुप्सा के अतिरिक्त सभी संचारी भावों का प्रयोग हो सकता है।
वियोग श्रृंगार- में निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, श्रम, चिंता, औत्सुक्य, निद्रा सुप्त, जागृति, व्याधि, उन्माद अपस्मार, जड़ता और मरण आदि संचारी भावों को प्रसंग के अनुसार अभिनय में प्रमुखता देनी चाहिए।
2- हास्य : ग्लानि, शंका, असूया, श्रम, चपलता, सुप्त और अवहित्थ भाव इस रस के लिए उपयुक्त हैं।
हास्य : विचित्र वेशभूषा, विवेकहीन चेष्टा, चंचलता, शरारत, गुदगुदी, असंगत प्रलाप, व्यंग्य और भूल आदि विभावों से हास्य की उत्पत्ति होती है। इसके अभिनय में ओठ, नाक और कपोल का हिलना, आँखों का फैलना और सिकुड़ना, मुँह का लाल होना और बाल पकड़ना आदि चेष्टाएँ की जाती हैं। इसके संचारी भाव अवहित्थ, आलस्य, तंद्रा, निद्रा, स्वप्न, जागृति और असूया आदि हैं।
हास्य के छः भेद बताए गए हैं-1- स्मित, 2- हसित, 3- विहसित, 4- प्रहसित, 5- अपहसित, 6- अतिहसित।
(1) स्मित: इसमें जबड़े थोड़े फैलते हैं, दाँत दिखाई नहीं पड़ते और व्यंग्य सुरुचिपूर्ण होता है।
(2) हसित: इसमें मुखमंडल और नेत्र प्रफुल्लित हो जाते हैं, जबड़े कुछ फैलकर दाँतों को थोड़ा प्रगट कर देते हैं।
(3) विहसित: इसमें आँख और कपोल कुछ सिकुड़ जाते हैं, स्वर कर्कश नहीं होता, मुँह लाल हो जाता है और हँसी अवसर के अनुकूल होती है।
(4) प्रहसित : इसमें नासिका फूल जाती है, दृष्टि तिरछी रहती है और अग तथा सिर सिकुड़ जाते हैं।
(5) अपहसित: जब हँसते-हँसते कंधा और सिर जोरों से हिले और आखों में आँसू आ जाएँ तब ऐसा हँसना अपहसित कहलाएगा।
(6) अतिहसित : इसमें नेत्र अश्रपूर्ण और उत्तेजित हो जाते हैं, स्वर विकृत और तीव्र हो जाता है और हाथ बगल की ओर चले जाते हैं।
3- करुण : इस रस में निर्वेद, चिंता, दैन्य, ग्लानि, अश्रु, जड़ता, व्याधि और मरण भावों का प्रयोग होना चाहिए।
4- वीर : उत्साह, आवेग, हर्ष, मति, उग्रता, क्रोध, असूया, धैर्य, गर्व और वितर्क का प्रयोग वांछनीय है।
5- रौद्र : गर्व, असूया, उत्साह, आवेग, मद, क्रोध, चपलता, हर्ष और उग्रता रौद्र रस की व्यंजना में सहायक होते हैं।
6- भयानक : स्वेद, कंपन, रोमांच, त्रास, मरण और विवर्णता भयानक रस को व्यक्त करते हैं।
7- वीभत्स : अपस्मार, उन्माद, विषाद, भय, व्याधि, मद और मरण वीभत्स रस को उद्दीप्त करते हैं।
8- अद्भुत : स्तंभ, स्वेद, मोह, रोमांच, विस्मय, आवेग, जड़ता, हर्ष और मूछा प्रसंग के अनुसार अद्भुत रस की निष्पत्ति में सहायक होते हैं।
9- शांत रस
10-वात्सल्य रस
11- भक्ति रस
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