अभिनय के दौरान चाहे मंच हो या सिनेमा स्थिति और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए Khade Hone ke Tarike अलग-अलग हो सकते है। अभिनेता कहां पर है, कैसा है, किस तरह से है, कोई भी स्थिति और परिस्थिति हो सकती है जिसका विवरण हम आगे करेंगे।
नाट्यशास्त्र में खड़े होने के 6 प्रकार बताए गए हैं
1 – वैष्णव
इस मुद्रा में दोनों पैर जमीन पर हों, लेकिन एक सीधा और दूसरा टेढ़ा हो। टेढ़े पैर का पंजा जमीन पर हो और एड़ी उठी हो। दोनों पैरों के बीच 272 ताल का अंतर हो (12 ताल = एक अँगुल)। जाँघे कुछ अंचित और समस्त शरीर सौष्ठवयुक्त हो।विष्णु को इसी शैली में खड़ा दिखाया जाता है। इसलिए इसका नाम वैष्णव रखा गया है। चक्र फेंकने और धनुष धारण करते समय पात्रों को इसी मुद्रा में खड़ा होना चाहिए। धैर्य आदि उदात्त भावों को प्रदर्शित करने के लिए भी इसका प्रयोग करना चाहिए। उत्तम और मध्यम श्रेणी के पात्र वार्तालाप करते समय भी इसी शैली में खड़े होते हैं।
2 – समपाद
दोनों पैर अपनी स्वाभाविक स्थिति में एक ताल के अंतर से जमीन पर स्थित हों। रथ, विमान और अन्य सवारियों में सवार होते समय पात्र इसी स्थान में खड़े होते हैं।
3 – मंडल
दोनों पैर चार ताल की दूरी पर तिरछे और अपने-अपने बाजू की ओर स्थित हों। कमर और घुटने अपनी स्वाभाविक स्थिति में हों। वज्र और धनुष चलाने में इस स्थान का प्रयोग होता था। आजकल भी इसी प्रकार के कार्यों में टाँगों को इस स्थिति में रखना पड़ेगा। हाथी की सवारी में भी पैर इस दशा में रहते हैं।
4 – वैशाख
दोनों पैर 32 ताल की दूरी पर रखकर स्थिर और तिरछे कर लिए जाएँ। फिर बायाँ पैर घुटने तक उठा लिया जाए। इस स्थान में खड़े होकर घोड़े पर सवार होना, बाहर निकलना, व्यायाम, धनुष खींचना और नृत्य में पाद रेचक आदि क्रियाएँ की जाती हैं।
5 – आलीढ़
मंडल स्थान में खड़े होकर दाएँ पैर को 5 ताल आगे रखकर खड़ा होना। इस स्थान का प्रयोग शौर्य और रौद्र भावों का प्रदर्शन, रोष और अमर्ष प्रगट करने वाले कार्य, अस्त्रों को फेंकना और शत्रु पर आक्रमण करने में किया जाता है।
6 – प्रत्यालीढ़
आलीढ़ स्थान के विपरीत दायाँ पैर पीछे हटाकर बायाँ पैर 5 ताल आगे करके खड़े होना। आलीढ़ स्थान में खड़े होकर जिन अस्त्रों को लिया गया है, उन्हें इस स्थान में खड़े होकर चलाना चाहिए। इनके अतिरिक्त अन्य शस्त्रों को चलाने का अभिनय (तलवार आदि चलाना) भी इसी स्थान में किया जाता है।
संगीत रत्नाकर में इन स्थानों के अलावा 23 स्थान और बताए गए हैं जिनका प्रयोग नृत्य में होता है। अतः उनका उल्लेख यहाँ करना प्रासंगिक नहीं होगा। न्याय (गदका चलाना) प्राचीन काल में वंद्व युद्ध में योद्धा तलवार और भाले का ही प्रयोग करते थे और संस्कृत नाटकों में युद्ध का दृश्य इसी रूप में दिखाया जाता था। लेकिन इन नाटकों में शस्त्र संचालन सीमित और नियंत्रित रहता था, क्योंकि उनमें मृत्यु दिखाना वर्जित था। इसलिए मंच पर शस्त्र संचालन के कुछ नियम निर्धारित किए गए, जिससे युद्ध का आभास हो और साथ ही किसी को चोट भी न लगे। इन नियमों को न्याय कहा जाता था। आजकल भी भारत में पटेबाजी और गदका चलाने में इनका प्रयोग होता है।
नाट्य शास्त्र में न्याय चार प्रकार के बताए गए हैं
1 – भारत
बाएँ हाथ में ढाल और दाएँ हाथ में तलवार ली जाए। फिर दोनों हाथों को फैलाकर उछाला जाए और ढाल को पीछे तथा अगल-बगल घुमाया जाए।
वार से सिर के चारों ओर परिक्रमा लगायी जाए और गालों के पास घमाया जाए। फिर तलवार और ढाल को सौष्ठवपूर्ण ढंग से सिर के चारों ओर घुमाया जाए।
2 – सात्वत
तलवार और ढाल का प्रयोग इस न्याय में भी होता है। अंतर केवल इतना है कि इसमें उन्हें सामने की बजाय पीछे घुमाया जाता है।
3 – वार्षगण्य
इस न्याय में चाल सात्वत की भाँति रहती है, लेकिन इनमें शस्त्र और ढाल साथ-साथ घुमाए जाते हैं। पहले इनको सिर के चारों ओर घुमाते हैं फिर छाती या कंधा के सामने घुमाते हैं।
4 – कौशिक
भारत न्याय के समान शस्त्र और ढाल इसमें भी घुमाए जाते हैं। लेकिन शस्त्र को घुमाकर सिर के ऊपर विराम किया जाता है। आज भी कथाकली नृत्य में तो इनका प्रयोग होता ही है, पूर्वोत्तर भारत के नागा-कबीलों, दक्षिण भारत की कुछ स्थानीय जातियों और जापान, थाईलैंड और इंडोनेशिया आदि बृहत्तर भारत के प्रदेशों में इस युद्ध कला (मार्शल आट) का प्रचलन कुछ संशोधित रूप में देखा जा सकता है।
नाट्यशास्त्र में न्याय के विभिन्न नामों से विदित होता है कि प्राचीन काल में भी इस कला का प्रचलन आर्यावर्त के साथ-साथ अन्य प्रदेशों में भी था।