अभिनय सीखने के लिए और एक सफल अभिनेता बनाने के लिए Sanvad Ki Shailiyan को समझना बहुत जरूरी है । संवादों में शब्द एक ही गति और स्वर से नहीं बोले जाते। भाव और प्रसंग के अनुसार अभिनेता कभी रुकता है, कभी धारा-प्रवाह बोलता चला जाता है और कभी स्वर को तीव्र या मंद कर देता है। इस दृष्टि से भरत ने संवाद की 6 शैलियाँ बताई हैं :
1- विच्छेद : दो शब्दों या वाक्यों के बीच में जो विराम लिया जाता है, उसे विच्छेद कहते हैं।
2- अर्पण : ललित और मधुर स्वर से मंच को भरते हुए अभिनेता जब अपने संवादों को बोलता है तब उसे अर्पण कहा जाता है।
3- विसर्ग : वाक्य को पूर्ण करना। 4. अनुबंध : विराम के बिना एक ही साँस में संवाद बोल जाना।
5- दीपन : जब संवाद का स्वर वक्ष से कंठ और कंठ से मस्तक तक पहुँचकर उत्तरोत्तर ऊँचा होता जाए तब उसे दीपन कहा जाता है।
6- प्रशमन : उच्च स्तर पर स्थित स्वर को बेसरा किए बिना धीरे-धीरे नीचे लाना प्रशमन कहलाता है।
संवाद बोलने की इन विधाओं का प्रयोग अभिनेता को प्रसंग के अनुसार करना चाहिए। हास्य और शृंगार में अर्पण, दीपन और प्रशमन का प्रयोग होना चाहिए। करुण में दीपन और प्रशमन का प्रयोग प्रभावकारी रहता है। वीर, रौद्र और अद्भुत में विच्छेद, दीपन, प्रशमन और अनुबंध का प्रयोग प्रचुर मात्रा में होना चाहिए। वीभत्स और भयानक में विसर्ग तथा विच्छेद का प्रयोग वांछनीय है।
विराम : संवाद में विराम कहाँ और कितना लेना चाहिए-इसे भी नाट्यशास्त्र में स्पष्ट कर दिया गया है। वाक्यों में अर्थ और पद्यात्मक संवादों में पद के समाप्त होने पर, साँस लेने के लिए, लंबे या समासयुक्त वाक्यों में द्रुतगति के संवादों में, संवाद के अंत में और अनेक अर्थ अथवा भ्रांति से बचने के लिए विराम का प्रयोग होना चाहिए।
संवादों में जहाँ दीर्घ स्वर या कृष्णाक्षर (दीर्घ स्वर से युक्त व्यंजन) आता हो वहाँ विषाद, वितर्क, प्रश्न और क्रोध में एक कला (5 निमेष) का विराम होना चाहिए। शेष अक्षरों पर अर्थ के अनुसार रुकना चाहिए जिसकी अवधि एक से पाँच कला हो सकती है।
जहाँ सबसे अधिक रुकना हो, वहाँ दीर्घ अक्षर होना चाहिए। लेकिन विराम का समय कहीं भी 6 कला से अधिक नहीं होना चाहिए। आवश्यकता होने पर अन्य स्थानों पर भी रुका जा सकता है। काव्य-पाठ में विराम पदों के अनुसार होता है। लेकिन मंच पर पद्यात्मक संवाद के पठन में विराम अर्थ के अनुसार नियोजित किया जाता है।
(ना.शा. 19/66-74) वाचिक अभिनय के प्रसंग में भरत हाथों की भूमिका बताना नहीं भूले हैं। उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि संवाद बोलते समय हाथ भी चलते रहने चाहिए। संवादों में प्रवाह और विराम हस्त-संचालन की गति और अगति के समांतर होना चाहिए। अर्थात हाथों का चलना और रुकना संवादों के बोलने और रुकने के साथ-साथ होना चाहिए। रस और भाव के अनुसार संवादों के समय हस्त-संचालन के विविध रूप होते हैं। वीर और रौद्र में हाथ प्रहारक मुद्रा में रहते हैं, हास्य और
करुण में संकेत मात्र करके लटके रहते हैं और अद्भुत में विस्मय से तथा भयानक में भयसन्न और गतिहीन हो जाते हैं। इस प्रकार संवादों के दौरान हाथ भी सक्रियता अथवा निष्क्रियता के द्वारा भाव-व्यंजना में सहायक होते हैं। संवादों को प्रभावी बनाने में लय-ताल का भी योगदान रहता है। पदयात्मक संवादों में लय स्वतः होती है।
गद्यात्मक संवादों में, जैसाकि पहले ही बताया जा चुका है, शब्दों के उच्चारण में आरोहावरोह से लय उत्पन्न की जाती है। प्राचीन संस्कृत नाटकों में अधिकांश संवाद पद्यात्मक होने के कारण लय-ताल का विशेष महत्व था और इसके लिए भरत को संगीत का पूरा विवेचन करना पड़ा जो नाट्यशास्त्र के छः अध्यायों 28 से 33 तक में फैला हुआ है।
संस्कृत रंगमंच पर प्रत्येक गति और कार्य संगीत से युक्त था। अभिनेता जब चलते थे तब उनके पैर संगीत की धुन पर थिरकते थे और जब वे बोलते थे तब उनके उच्चारण में लय होती थी, जिसको ताल नेपथ्य से मृदंग पर दी जाती थी। मंच प्रस्तुति में नाटकीयता इस विधि से सहज ही में उत्पन्न हो जाती थी। इसका कुछ रूप आज भी लोक रंग की कुछ पद्धतियों में देखा जा सकता है।
आधुनिक नाटक में संवाद न पद्यात्मक होते हैं और न संगीत से नियमित। फिर भी अभिनेता उच्चारण में आरोहावरोह और विराम के प्रयोग से लय की सष्टि अवश्य कर लेते हैं। साथ ही पार्श्वसंगीत का भी योगदान रहता है।