नाट्यशास्त्र में Sanvadon Ke prakar की विस्तृत जानकारी तो मिलती ही है और इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि जनांतिक संभाषण के समय अभिनेता को अपने हाथ त्रिपताक मुद्रा में रखने चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन संस्कृत नाटकों में इस प्रकार के संवाद के समय हाथों को त्रिपताक मुद्रा में रखने की परंपरा पड़ गई थी ताकि दर्शक उसे देखकर समझ जाएँ कि अभिनेता जनांतिक या अपवारित पद्धति का प्रयोग कर रहा है। आधुनिक नाटकों में अभिनेता इस प्रकार के संवादों में कुछ इशारों का सहारा लेते हैं।अभिनय में भाव और अर्थ की दृष्टि से संवादों के 12 प्रकार बताए गए हैं ।
1- आलाप : सामान्य वार्तालाप
2- प्रलाप : निरर्थक वार्तालाप
3- विलाप : शोकपूर्ण वक्तव्य
4- अनुलाप: एक ही बात को बार-बार कहना
5 संलाप: वाद-विवाद
6- अपलाप : पहले कही बात का दूसरा अर्थ या मंतव्य बताना
7- संदेश : एक पात्र द्वारा दूसरे पात्र से ऐसी बात कहना जो तीसरे पात्र को सूचित करनी हो।
8- अतिदेश : सहमतिसूचक कथन
9- व्यपदेश: किसी और बहाने से कही हुई बात घुमा-फिराकर करना
10- उपदेश : परामर्श या सीख देना
11- निर्देश: आज्ञा देना
12- अपदेश :व्यंग्य या कटाक्ष करना
पात्र और स्थान के अनुसार संवाद 4 प्रकार का बताया गया है :
1- आकाशभाषित या आकाशवाणी : अदृश्य और दिव्य पात्रों का संभाषण।
2- आत्मगत: किसी पात्र का अकेले में अथवा अन्य पात्रों के सामने अश्रवणीय स्वर में बात करना। अंग्रेजी में इसी को ‘सोलिलोक्वी’ (Sohloquy) कहते ह जिसका प्रयोग आधुनिक नाटकों में बहुत होता है।
3- अपचारित: संबोधित व्यक्ति से फुसफुसाकर बात करना ताकि दूसरे पात्र उसे न सुन सकें।
4- जनांतिक : पास खड़े व्यक्ति को बात न सुनाते हुए दूसरे व्यक्ति से गोशे में, कान में या इशारों में बात करना।
आवेश, उत्पात, रोष और अवसाद की स्थिति में जब अभिनेता बात करते हैं तब वे कुछ शब्दों को बार-बार दुहराते हैं। नाट्यशास्त्र में ऐसे शब्दों का उल्लेख किया गया है जो ‘हाय, अच्छा, बोलो, छोड़ो, जाओ और क्या’ हैं। उपयुक्त आवेशमय स्थितियों में ऐसे शब्द दो-तीन बार दुहराए जा सकते हैं। यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि संवाद में जो वाक्य अपूर्ण या विकृत हों, उन्हें आंगिक चेष्टाओं से प्रदर्शित करना आवश्यक नहीं अर्थात् ऐसे वाक्यों को शाखा अभिनय का अंग न बनाया जाए।
इसके अतिरिक्त सुप्तावस्था अथवा स्वप्न में संवादों का स्वरूप भी समझा दिया गया है। इस अवस्था में पात्र को मंद स्वर में बोलते हुए व्यक्त, अव्यक्त तथा पुनरुक्त वचन कहने चाहिए। साथ ही किसी बीती हुई बात का अनुस्मरण भी करना चाहिए। बात करते समय किसी आंगिक अभिनय का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए।
वृद्धावस्था, बाल्यावस्था तथा मरणावस्था में संवादों के विषय में भी उपयोगी बातें बताई गई हैं। वृद्धावस्था का अभिनय करते समय स्वर गद्गद और शब्दों के अक्षर स्खलित अर्थात् उनका उच्चारण बीच-बीच में अस्पष्ट होना चाहिए।
बालकों के संवाद में कल-कल ध्वनि और अपूर्ण शब्द होने चाहिए। मरणावस्था में अभिनेता को स्वर गद्गद, करुण, शिथिल और भारी रखना चाहिए। गले में घरघराहट हो, श्वास चलती रहे, हिचकी आती रहे और उनके साथ-साथ बेहोशी भी आ जाए।
काल और पुरुष के अनुसार,वाक्यों को सात वर्गों में विभाजित किया गया है :
1- भूत, 2- भविष्य, 3. वर्तमान, 4. आत्मस्थ, 5. परस्थ, 6. प्रत्यक्ष, 7. परोक्ष ।
संवादों में वाक्य होते हैं और वाक्य में क्रिया का कोई काल-भूत, भविष्य या वर्तमान-होना अनिवार्य है। इस प्रकार संवादों के प्रथम तीन वर्ग क्रिया के काल से संबंधित हैं।आत्मस्थ और परस्थ संवादों का उल्लेख पहले ही हो चुका है। इनमें क्रमशः प्रथम और द्वितीय पुरुष का प्रयोग होता है। परोक्ष संवाद में सामने स्थित संबोधित पात्र के अलावा कोई अन्य व्यक्ति (तृतीय पुरुष) हो सकता है। जैसे-वे लोग यहाँ आ सकते हैं। प्रत्यक्ष संवाद में संबोधित व्यक्ति सामने ही होता है अर्थात् द्वितीय पुरुष । जैसे-तुम कहाँ जा रहे हो ?
संवादों के इस सामान्य परिचय के अतिरिक्त नाट्यशास्त्र में काकु (स्वरपरिवर्तन) स्वराघात (Accent), उच्चारण और विराम का सूक्ष्म और गहन अध्ययन किया गया है।सर्वप्रथम स्वर के तीन स्थान बताए गए हैं :
1- वक्ष, 2- कंट, 3- मूर्ध। वक्ष से मंद, कंठ से मध्यम और मूर्ध से तीव्र या तार स्वर निकलता है। इनको ही संगीत में सप्तक कहा जाता है।
दूरस्थ व्यक्ति से संभाषण में मूर्धन्य अर्थात् तीव स्वर का प्रयोग करना चाहिए। जो दूर न हो उससे कंठ स्वर और जो पास हो उससे वक्ष अर्थात् मंद स्वर में बात की जाए।संवादों में स्वर-परिवर्तन मंद, मध्यम और तीव्र के क्रम में न करके मंद से तीव्र और तीव्र से मध्यम करना चाहिए। तभी वे प्रभावी और भाव-व्यंजक बनते।