सात्विक अभिनय Satvik Abhinay का विषय रसशास्त्र से जुड़ा हुआ है। रस नाट्यशास्त्र का एक आधारभूत सिद्धांत है। यही उसका सौंदर्यशास्त्र है। रसानुभूति ही नाट्य प्रयोग की चरम परिणति है। लेखक, अभिनेता और दर्शक तीनों का प्रयोजन रसानुभूति है। यहां विषय रस नहीं, अभिनय है।
नाट्यशास्त्र में सात्विक भाव का प्रयोग दो अर्थों में किया गया है-
1 – अंतर्मन का भाव अथवा अनुभूति।
2 – अनायास शारीरिक विकार अर्थात् सहज अनुभाव
जैसे-अश्रु, स्वेद और रोमांच आदि। भरत ने भाव शब्द की व्याख्या भी बहुत सरल ढंग से की है। दार्शनिकों की भाँति इसे एक अमूर्त और अगम्य तत्व के रूप में प्रस्तुत नहीं किया। उन्होंने इसे नितांत व्यावहारिक रूप दिया है और अभिनेता के मन में इसके बारे में कोई संशय नहीं छोड़ा।
भाव शब्द ‘भू’ धातु से बना है जिसका अर्थ है होना, अस्तित्व होना। संसार में किसी वस्तु का संज्ञान उसके रस-गंध आदि उद्दीपनों प्रेरणा (Stimulation) से होता है और यह संज्ञान ही उस वस्तु का भाव है।
नाट्यकर्म के परिप्रेक्ष्य में वाचिक, शारीरिक और सात्विक अभिनय के द्वारा नाटककार के अभिप्रेत अर्थ का प्रगट और अनुभूत रूप ही भाव है। जो विभावों के द्वारा उद्दीप्त किया जाए और जिसे वाचिक, आंगिक तथा सात्विक अभिनय के द्वारा अनुभावों के रूप में दर्शकों तक पहुँचाया जाए, उसे ही भाव कहते हैं। नाना प्रकार के अभिनय के आधार पर रसों का जो भावपन होता है, वही भाव है।
स्पष्ट है लेखक के आशय /तात्पर्य का अर्थ और अभिनय के माध्यम से उसे दर्शकों तक पहुँचाने की प्रक्रिया-दोनों ही भाव के अंतर्गत आते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि लेखक का अंतर्मन अर्थात् सत्व और उसका अभिनय द्वारा मूर्तीकरण दोनों ही भाव के अभिन्न अंग हैं। जिस अभिनय में सत्व का चित्रण होता है उसे सात्विक अभिनय कहा जाएगा और उसे अभिनय में सर्वोच्च स्थान दिया गया है।
अभिनय में सत्व का नियोजन किस प्रकार संभव है ? भरत ने स्पष्ट किया है कि वही अभिनय सात्विक कहलाएगा जिसमें सात्विक भावों-अश्रु, स्वेद और रोमांच आदि का प्रयोग देशकाल के अनुसार किया जाए। सात्विक भाव आठ प्रकार के बताए गए हैं-अश्रु, स्वेद, स्तंभ, कंपन, वैवर्ण्य, रोमांच, मूर्छा और स्वर भेद. जो शरीर में तीव्र आवेश की दशा में स्वतः प्रगट होते हैं और उनमें किसी प्रकार का बनावटीपन नहीं होता।
जब अभिनेता का मन अपनी भूमिका पर एकाग्र रहता है तभी उसमें सात्विक भाव उदित होते हैं। मन की एकाग्रता और सात्विक भाव एक-दूसरे के सापेक्ष हैं। सुखी अभिनेता द्वारा विषादात्मक भूमिका और दुःखी अभिनेता द्वारा सुखात्मक भूमिका का निर्वाह मन की इसी विशेषता के कारण संभव होता है।
सात्विक विकार शरीर किन स्थितियों में प्रगट होते हैं । आठ सात्विक भावों का क्रमवार विवरण…
1 – अश्रु : आनंद, शोक, शीत, भय, रोग, धूप, अंजन, अँभाई और निरंतर अवलोकन से आँखों में अश्रुप्रवाह होता है।
2 – स्वेद : क्रोध, भय, हर्ष, लज्जा, अवसाद, श्रम, रोग, ताप, आघात, व्यायाम, धूप और संपीड़न से शरीर में स्वेद उत्पन्न होता है।
3 – स्तंभ : हर्ष, भय, रोग, विस्मय, विषाद और रोष आदि के कारण शरीर स्तंभित होता है।
4 – कंपन : शीत, भय, हर्ष, रोष, स्पर्श और जरा में कंपन होता है।
5 – वैवर्ण्य : शीत, क्रोध, भय, श्रम, रोग, क्लाति, और ताप से शरीर-मुख्य रूप से चेहरा विवर्ण हो जाता है।
6 – रोमांच : स्पर्श, भय, शीत, हर्ष, क्रोध और रोग से शरीर में रोमांच उत्पन्न होता है।
7 – स्वर भेद : भय, हर्ष, क्रोध, जरा, गले की रूक्षता, रोग और मद में स्वर बदल जाता है।
8 – मूर्छा : श्रम, मद, निद्रा, आघात और मोह के कारण शरीर मूर्छित हो जाता है।
इन विकारों को अभिनय में किस, प्रकार प्रदर्शित किया जाए ?
1 – स्वेद : पसीना आने का अभिनय अंगों को पोंछकर और पंखा चलाकर करना चाहिए। पंखा उपलब्ध न हो तो पात्र को हवा लेने की इच्छा जाहिर करना चाहिए।
2 – स्तंभ : इस अवस्था में निश्चेष्ट और निष्क्रिय होकर अन्यमनस्कभाव से शरीर को जड़ और स्थिर करके झुका लिया जाए।
3 – कंपन : इसका अभिनय करने के लिए पात्र शरीर को हिलाए और थरथराए।
4 – स्वरभेद : इसका अभिनय आवाज को गद्गद और बदलकर अर्थात् गला रूंधकर करना चाहिए।
5 – रोमांच : इसका प्रदर्शन गात्रस्पर्श, बार-बार कंटकित होना और शरीर में सिहरन के द्वारा किया जाए।
6 – अश्रु : इसका प्रदर्शन आँखों में पानी भरकर, बार-बार आँसू गिराकर और आँखों को पोंछकर करना चाहिए।
7 – वैवर्ण्य : चेहरे का रंग कृत्रिम रूप से कैसे बदला जा सकता है-इसका उपाय भी नाट्यशास्त्र में बताया गया है। यत्नपूर्वक नाड़ी-स्थान को दबाने से चेहरा विवर्ण हो जाता है। इसका अभिनय कुछ दुष्कर है।
8 – मूर्छा : इसका अभिनय निष्चेत और निष्कंप शरीर तथा स्वांस प्रवाह रोक कर और जमीन पर गिरकर करना चाहिए।
सात्विक भावों के साथ भरत ने विभिन्न स्थायी और संचारी भावों के अभिनय की विधि भी विस्तार से बताई है अर्थात् उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि ये भाव किस प्रकार के विभावों से उद्दीप्त होते हैं और किस प्रकार के अनुभावों से प्रदर्शित किए जा सकते हैं। अन्त में उन्होंने यह भी बता दिया है कि किस स्थायी भाव में कौन संचारी भाव विद्यमान रहता है। संचारी भाव क्षणिक रूप से स्थायी भावों के बीच में आते-जाते रहते हैं, जबकि स्थायी में निरंतरता रहती है। पहले हम स्थायी भावों के उद्दीपक और बाह्य लक्षण अर्थात् विभाव और अनुभाव।
स्थायी भाव आठ बताए गए हैं-1. रति, 2. शोक, 3. हास, 4. क्रोध, 5. उत्साह, 6. भय, 7.जुगुप्सा, 8. विस्मय।
1 – रति : इस भाव की उत्पत्ति में वसंत-जैसे मौसम की बहार, सुंदर वस्त्र और आभूषण, सुगंधालेपन, माला, सुस्वाद भोजन और सुंदर भवन आदि का वातावरण सहायक होता है। इसका अभिनय स्मितवेदन, मधुर वचन, प्रक्षेप और कटाक्ष आदि शिष्ट अनुभावों से करना चाहिए।
2 – शोक : प्रियजन का वियोग, पराजय, क्षति, वध, गिरफ्तारी या कोई अन्य प्रकार का बंधन और पीड़ा आदि विभावों से इसकी उत्पत्ति होती है। इस भाव के अभिनय में आँस, रोना, सिसकना, विवर्णता, स्वरभेद, अस्वस्थता, धाड़ मारकर चीखना और गिर पड़ना, लंबी साँस लेना, जड़ता, उन्माद, मोह और मरण अनुभवों का प्रयोग प्रसंग के अनुसार करना चाहिए।
3 – हास : दूसरों की नकल, बाजीगरी, दुष्टता, असंगत प्रलाप, मरर्वता अड़ियलपन आदि विभावों से हास की उत्पत्ति होती है और हँसना आदि अना से इसका प्रदर्शन किया जाता है।
4 – क्रोध : दोष लगाना, अपशब्द कहना, क्षति पहुँचाना और विवाद आग प्रतिकूलताएँ इस भाव के उद्दीपक हैं। इसका अभिनय आँखें तरेरना, नथुने फलाना ओठ काटना, ऊँची आवाज में चीखना और जबड़े काँपना आदि अनुभवों से किया जाता है।
5 – उत्साह : इस भाव का उद्दीपन हर्ष, धैर्य, बल और पराक्रम से या उनके दृश्य देखकर होता है। इसका अभिनय दृढ़ता, त्याग और चातुर्य के प्रदर्शन से होता
6 – भय : गुरुजन, राजा, अपराध, वन्यपशु, सुनसान भवन, वन, पर्वत, सप और हाथी देखना, भर्त्सना, गुफा, रात, अंधकार, उलूक, निशाचर, विपत्ति और हुआ हआ का शोर आदि विभावों से भय का संचार होता है। हाथ-पैर कॉपना, पर धडकना, मुँह सूखना, जीभ घुमाना, पसीना आना, कंपन, त्रास, दौड़ना, चीखना, आँखें फाड़ना, रक्षा के लिए गुहार करना और वदन सन्न हो जाना आदि अनुमा के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है।
7 – जुगुप्सा : घृणित दृश्य या पदार्थों का देखना-सुनना और स्मरण करना आदि विभाव इस भाव के प्रेरक होते हैं। इसके अभिनय में मुँह बिसोरना, थूकना, अंगों को सिकोड़ना और सीना पकड़ना आदि अनुभावों का प्रयोग किया जाता है।
8 – विस्मय : जादू, बाजीगरी, अलौकिक क्रियाकलाप, विचित्र शिल्प और कला आदि विभावों से विस्मय की उत्पत्ति होती है। इसके अभिनय में एकटक देखना, आँखें फाड़ना, रोमांचित होना, सिर हिलाना और वाह-वाह करना आदि अनुभावों का प्रदर्शन किया जाता है।
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