Stanislavsky Ka Abhinay Siddant अभिनेता के लिए दिशा निर्देश है कि एक अभिनेता अपना काम कैसे करे? किस प्रकार वो अपने आपको अनुप्रेरित करे ? वो अपनी उच्चतर रचनात्मक अवस्था को अपनी मर्ज़ी से कैसे हासिल करे ? अगर एक जीनियस बहुत सहज प्राकृतिक रूप में रचनात्मक अवस्था को उसकी सम्पूर्णता में हासिल करता है तो ज़रूर कहीं कठोर परिश्रम का ऐसा रास्ता भी होगा जो एक आम आदमी को भी उस अवस्था तक पहुँचा सकता है।
कोंस्टाटीन सेर्गेविच स्तानस्लावस्की की मूल चिंता का केन्द्र यहीं था, वे अभिनेता के लिए सबसे प्राकृतिक, विकसित और वैज्ञानिक अभिनय सिद्धांत की तलाश कर रहे थे जो बदले हुए परिवेश, परिस्थिति में दर्शकों की उपस्थिति से प्रभावित हुए बिना सत्य की निर्बाध अभिव्यक्ति कर सके। उन्होंने मानव मनोविज्ञान को केन्द्र में रखकर रंगमंच को वैज्ञानिक रूप, सुनिश्चित आकार और तर्कसंगत पद्धति देने का प्रयास किया है । 40 से अधिक साल के निरंतन चिंतन एवं प्रयोगों से स्तानिस्लावस्की ने सिद्धांत विकसित किया जिसके केंद्र में अभिनेता था। जिसे ‘मेथड’ या ‘सिस्टम’ कहा जाता है।
शारीरिक क्रियाओं के सिद्धांत (The Method of Physical Action)
यह सिद्धांत मंच पर स्वस्फूर्त व्यवहार की समस्या का समाधान प्रस्तुत करने की मनोवैज्ञानिक कोशिश करती है। मनोवैज्ञानिक अनुभव और उनकी शारीरिक अभिव्यक्ति के बीच अटूट रिश्ता है। मनुष्य की आत्मा और शरीर के तत्व अविभाज्य हैं. बिना बाह्य शारीरिक प्रदर्शन के आंतरिक अनुभव संभव नहीं, अनुभवों के आदान-प्रदान में हमारा शरीर ही माध्यम बनाता है।
केवल शरीर से ही चरित्र का निर्माण करना संभव नहीं। अगर कोई अभिनेता मनोविज्ञान की अवहेलना करके शारीरिक हाव-भाव के सहारे अभिनय करता है, तो वो यान्त्रिकता का शिकार होता है। यहाँ विचार और अनुभव का सम्प्रेषण नहीं हो पाता और किसी भी व्यक्ति को इनके बिना समझना संभव नहीं। मंच पर स्वाभाविक आचरण के लिए अभिनेता को मंच पर हो रहे प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया को मनोवैज्ञानिक-शारीरिक रूप से समझने में समर्थ होना चाहिए।
मंच पर वास्तविक कुछ भी घटित नहीं होता किन्तु भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए वास्तविक कारण चाहिए. वास्तविक जीवन में व्यक्ति अक्सर वास्तविक अनुभव की अनुभूति से किसी न किसी वजह से बचता है किन्तु मंच पर वास्तविक अनुभव को अभिव्यक्त करना महत्वपूर्ण है। वास्तविक शारीरिक क्रिया की तलाश से ही अभिनेता मनोवैज्ञानिक-शारीरिक सहभागिता को हासिल कर सकता है।
चरित्र की यह क्रिया ही तर्क का निर्माण करती है। यह प्रक्रिया मानवीय प्रक्रिया से अलग है। वास्तविक जीवन में हम भावना को पहले महसूस करते हैं फिर व्यक्त करते हैं। स्तानिस्लावस्की के अनुसार एक अभिनेता भावना के अनुभव को शारीरिक क्रिया के द्वारा प्राप्त करता है। शब्दों की एक सीमा होती है इसलिए अभिनेता को मंच पर शरीर से भी अभिव्यक्ति करना चाहिये, आंतरिक मोनोलॉग व अन्य मानसिक प्रक्रिया का निर्वाध प्रवाह अभिनय के ज़रुरी शर्त हैं।
मंच पर अभिनेता को सचमुच देखना, सुनना, समझना, अनुभव करना, बात करना चाहिए. एक अभिनेता का दिमाग, उसकी इच्छाशक्ति और उसकी भावना, जो की मानवीय जीवन के मनोवैज्ञानिक पहलुओं को नियंत्रित करती है, को मंच पर जीवंत मानवीय चित्रण के लिए अवश्य शामिल होना चाहिए।
स्तानिस्लावस्की के अनुसार अभिनय के निम्न अवयव Component हैं
यदि का जादू : यदि चरित्र की जगह मैं होता, ‘यदि’ अभिनेता की कल्पना, सोच और तार्किक अभिनय के लिए एक संभावना और शक्तिशाली उत्प्रेरक है। यह अभिनेता को काल्पनिक परिस्थिति में ले जाने में मदद करता है। यह चरित्र के लक्ष्य को अभिनेता के लक्ष्य में बदल देता है।
प्रदत्त परिस्थितियां Given circumstances
चरित्र क्या, कब, क्यों, कैसे करता है इसके लिए परिस्थितियां भी जिम्मेवार होती हैं। नाटक में प्रदत्त परिस्थितियों में होने वाली क्रिया के द्वारा ही चरित्र का निर्माण होता है। नाटक का विषय, काल, समय, स्थान, अवस्था, निर्देशक-अभिनेता की व्याख्या, मंच-सज्जा, प्रकाश-व्यवस्था, ध्वनि-प्रभाव, भी चरित्र के निर्माण में सहायक होते हैं।
कल्पना Imagination
नाटक कल्पना के सहारे ही फलीभूत होता है। कल्पना स्पष्ट, ठोस, क्रमिक, सत्यपरक और तार्किक होना चाहिए। किसी भी नाटककार की पंक्तियाँ तबतक जीवित नहीं हो सकती जबतक अभिनेता अपनी कल्पना से उसकी व्याख्या कर उसका सही अर्थ यानि उसके पीछे की सोच को अभिव्यक्त नहीं करता। इससे सबटेक्स्ट का निर्माण होता है। स्तानिस्लावस्की के अनुसार दर्शक सबटेक्स्ट को अनुभव करने के लिए ही रंगमच में आते हैं। नाटक तो वो घर पर भी पढ़ सकते हैं।
ध्यान का केंद्रीकरण Focus of attention
यह सृजनशीलता के लिए एक ज़रुरी तत्व है. यह भय-मुक्त, सहज आदि से इतर उस क्षण को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होता है जिसे “निजी क्षण” (public solitude) कहते हैं। एक अभिनेता को अपना ध्यान मंच पर केंद्रित करना चाहिए और ऐसा करते हुए उसे दर्शकों का भी ध्यान रखना ज़रुरी है। एक ठोस विचार, उसे व्यक्त करनेवाला शरीर और एक साकार शारीरिक क्रिया ही के द्वारा अभिनेता अपना ध्यान मंच पर केंद्रित करता है। इसके लिए उसे नए ढंग से देखना, सुनना, सोचना सिखना चाहिए।
सत्य और विश्वास Truth and Faith
नाटक में सबकुछ गढा जाता है, जीवन और मंच का सत्य एक नहीं है। इसलिए विश्वास एक ज़रुरी तत्व है। अभिनेता अपने विश्वास और सच्चे व्यवहार के सहारे दर्शकों को विश्वास दिलवाता और ‘दृश्यात्मक सत्यता’ को स्थापित करता है।
सामूहिक सहभागिता Collective participation
अभिनेता मंच पर घटित होनेवाली घटनाओं पर निर्भर करता है, जो अन्य चरित्रों के व्यवहार पर भी आश्रित होता है। इसे सामूहिक प्रयास और आपसी प्रभाव से ही संभव बनाया जा सकता हैं। इसके लिए उसे सहभागिता के सिद्धांतों को अपनाना एक अनिवार्य तत्व हो जाता है। रंगमंच एक सामूहिक कला है इसलिए बिना सामूहिक सहभागिता के किसी अच्छे लक्ष्य तक पहुँचना संभव नहीं।
अनुकूलन Adaptation
लक्ष्य प्राप्ति में आनेवाली भौतिक अडचनों को पार करना अनुकूलन कहलाता है। कोई भी चीज़ कैसे किया जायेगा इसका जवाब इस विधि से संभव है। यह सहयोगी के व्यवहार एवं अन्य अडचनों पर भी निर्भर करता है।
गति-ताल Pace-Rhythm
हर क्षण, तथ्य, परिस्थिति, संवाद, घटना और चरित्र की अपनी एक आतंरिक और वाह्य गति-ताल होता है। अभिनय में विश्वसनीयता के लिए अभिनेता के अंदर इसकी समझ अत्यंत ही आवश्यक है। ताल को आंतरिक अनुभव और इसकी शारीरिक अभिव्यक्ति के बीच की कड़ी भी माना गया है।
भावनात्मक स्मृति Emotional memory
अभिनय जीवन के अनुभव का काव्यात्मक प्रतिरूप है. अभिनेता अपनी भावनात्मक स्मृतियों के सहारे परिस्थिति को मंचीय स्वरूप प्रदान करता है किन्तु मंचीय भावनाएं और जीवन के भावनाओं में फर्क इसलिए है क्योंकि मंच पर इसकी उत्पत्ति का कारण वास्तविक नहीं होता है। इसे वास्तविक बनाने के लिए अभिनेता को अपनी भावनात्मक स्मृतियों का सहारा लेना पड़ता है। ये स्मृतियाँ अनुभवों को संजोकर संश्लेषित भी करती हैं। अभिनेता के पास अपनी भावनात्मक स्मृतियों को पुनर्जीवित एवं उसे मंचीय परिस्थिति में ढालने की क्षमता होनी चाहिए। इसके लिए एक अभिनेता अपनी आंतरिक ज़िंदगी और बाहरी दुनियां के निरिक्षण से सामग्री इक्कट्ठा करता है। इसलिए उसे हर वक्त सजग रहना ज़रुरी है।
विश्लेषण Analysis
नाटक को अच्छे से विश्लेषित कर उसके सार को समझना और उसे तर्कपूर्ण रूप से व्यक्त करना अभिनेता के लिए एक ज़रुरी प्रक्रिया है।
क्रिया Action
इसके लिए अभिनेता को नाटक, चरित्र, काल, नाटककार का उद्देश्य तथा दी गई परिस्थियों का तार्किक और सटीक विश्लेषण करना ज़रुरी है। सही चीज़ों का चयन ही भूमिका के लिए सही क्रिया का निर्धारण करता है। नाटक में हर चरित्र का अपना उद्देश्य होता है।
मुख्य अभिप्राय और क्रिया Main intention and action
महान नाटककारों के बिना रंगमंच संभव नहीं. रंगमंच का पहला कर्तव्य नाटककार के विचारों को दर्शकों तक कलात्मक तरीके से पहुँचाना है। यही अभिनय का अंतिम लक्ष्य है। एक लिखित नाटक अभिनेता-निर्देशक की मदद से जीवंतता प्राप्त करता है। यह कार्य सुपर ऑब्जेक्टिव के द्वारा ही संभव है, जो सृजनात्मक प्रक्रिया का आधारभूत उत्प्रेरक भी माना जाता है। प्रत्येक विवरण, सोच क्रिया इससे जुड़ी हुई है। इसके माध्यम से चरित्र की क्रियायों के तर्क नियंत्रित होते हैं। इसलिए एक अभिनेता के मन में इसके पुरी तरह स्पष्ट होना चाहिए। ऐसा न होने पर मंच पर चरित्र के जीवन की निरंतरता बनाये रखना संभव नहीं।
थ्रू लाइन आफ एक्शन Through line of Action
एक्शन का एक तार्किक ताना बना है जिसके तहत अभिनय को तर्क और संदर्भपूर्ण बनाने के लिए अभिनेता को दिमागी तौर पर अपनी भूमिका के अनुकूल दिशा की तलाश करनी होती है। थ्रू लाइन आफ एक्शन और सुपर ऑब्जेक्टिव वे लक्ष्य हैं जिनके मार्फ़त भूमिका का निर्माण होता है। इसका उद्धेश्य भी नाटक के मुख्य उद्देश्य को व्यक्त करना होता है। नाटक में द्वन्द का विकास में इसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। प्रत्येक पात्र का अपना एक मुख्य लक्ष्य होता है अपनी भूमिका के माध्यम से उसे प्राप्त करना ही उस चरित्र का सुपर ऑब्जेक्टिव और उसका थ्रू लाइन आफ एक्शन होता है। स्तानिस्लावस्की इसे “मस्तिष्क के पुनर्जागरण” की संज्ञा देते हैं।
अभिनेता का शारीरिक तंत्र Actor’s Body System
चरित्र को जीवन्तता प्रदान करने के लिए अभिनेता का शरीर उसका माध्यम है। जिसे आंतरिक और शारीरिक रूप से साकार करने के लिए एक अभिनेता के पास संवेदनशील, प्रशिक्षित, अनुशासित, नियंत्रित एवं उत्तरदायी शारीरिक तंत्र होना चाहिए। इसके लिए निरंतर अभ्यासरत रहना एक अनिवार्य शर्त बन जाता है।
चरित्र का निर्माण Building Character
अभिनेता अपनी अभिव्यक्ति मानवीय क्रिया और प्राकृतिक नियमों के माध्यम से करता है। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो शारीरिक पहलुओं, गतियों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। जो क्रिया चरित्र को व्यक्त करने में प्रभावी है उसे कलात्मक रूप से सही माना गया है। उद्देश्य का अर्थ होता है जीवन की अभिव्यक्ति, भूमिका के निर्माण के लिए क्रिया का चयन के लिए दक्षता की ज़रूरत पड़ती है। इसका चयन ही चरित्र के निर्माण का आधार है। इसके लिए चरित्र के सन्दर्भ में इन सवालों का जवाब तलाशना ज़रुरी है कि मैं कौन हूँ, यह क्रिया कहाँ, किसके साथ और किसलिए हो रही है। मंच पर चरित्र क्या और क्यों कर रहा है इसकी जानकारी के बिना चरित्र निर्माण संभव नहीं।
ऐसा करने के लिए साझा मकसद के इतर व्यक्तिगत और अनोखे तर्क का होना ज़रुरी है। क्योकि सामूहिक सच के बीच व्यक्ति का अपना भी सच होता है। स्तानिस्लावस्की कहते हैं “अभिनेता की कला नाटक के क्रिया के तर्क को जानने और उन सबको क्रमवद्ध रूप से पिरोने की योग्यता है.” इससे भूमिका का स्वरूप (Prospective) बनता है। अभिनेता को अपने वास्तविक जीवन और चरित्र के जीवन के स्वरूप के बीच अंतर करना भी आना चाहिए। चरित्र का व्यवहार क्रमिक, सरल, सत्य, सूक्ष्म, तार्किक व ठोस क्रियाओं से निर्मित होना चाहिए। मंच पर किसी क्रिया को सत्यतापूर्वक जीना जीवन जीने जैसा है।
चरित्र के निर्माण में अभिनेता को नाटककार, निर्देशक तथा अन्य सहयोगी अभिनेताओं और चरित्रों द्वारा वर्णित संकेतों को भी आत्मसात करते हुए सोच, क्रिया, स्वरुप, अनुभव, आदत, आचार-विचार आदि को निरुपित करना चाहिए। इसमें अभिनेता की व्यक्तिगत विचार भी समाहित होना चाहिए.स्तानिस्लावस्की इसे अपने आप (Self) से शुरू करके चरित्र तक पहुँचाने की प्रकिया के रूप में देखते हैं। इस प्रक्रिया में यह सावधानी बरतने की आवश्यक है कि चरित्र पर अभिनेता के विचार थोपे न जा रहे हों। अभिनेता को चरित्र के हिसाब से अपने को ढालना चाहिए, अपने अनुसार चरित्र को नहीं। अभिनेता का स्वयं पर नियंत्रण एक अनिवार्य शर्त है।
स्तानिस्लावस्की ने अभिनय की जटिल कला को व्यवस्थित सैद्धांतिक रूप दिया। अभिनय को वैग्यानिक कला मानते हुए वे अभिनेता को अनुशासित रहने को कहते हैं जो शारीरिक और मानसिक तैयारी से ही संभव है। इस तैयारी में अवचेतन महत्त्वपुर्ण है जिसकी सक्रियता अभिनय को जीवंत करती है। स्तानिस्लावस्की के ‘मेथड’ ने वैश्विक पैमाने पर अभिनेताओं को प्रेरित किया। यथार्थवाद को मंच पर प्रतिष्ठित किया।
उन्होंने अभिनेता को चरित्र की त्वचा के भीतर उतर कर अपने ‘स्व’ को चरित्र के ‘स्व’ में एकमेक करने के लिये कहा। नाट्यशास्त्र के सिद्धांतो के प्रभाव उनके ‘मेथड’ में है। कालांतर में ब्रेख्त ने उनके सिद्धांतो से अलग सिद्धांत विकसित किये जिसमें अभिनेता के चरित्र हो जाने का प्रतिवाद करते हुए प्रदर्शक रूप पर बल दिया। स्तानिस्लावस्की के मेथड का प्रभाव आज भी है। स्तानिस्लावस्की के परवर्ती सिद्धांतकार ग्रोतोवस्की ने उन्हें एक ऐसे संत की संग्या दी है जो जीवन भर एक कठिन कर्म को सहज बनाने में लगा रहा।
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