भारत मुनि के अनुसार अभिनय में Uchcharan Ke Prakar को चार तरह का माना गया है 1- उदात्त, 2- अनुदात्त, 3- स्वरित, 4- कंपित। । उदात्त में स्वराघात रहता है। अनुदात्त में स्वर सामान्य रखा जाता है। ध्वनि का विशिष्ट रूप स्वरित और कंपित उच्चारण में मिलता है। हास्य और शृंगार रसों में स्वरित और उदात्त, वीर, अद्भुत तथा रौद्र रसों में उदात्त एवं कंपित तथा करुण, वीभत्स और भयानक रसों में अनुदात्त और कंपित उच्चारण होना चाहिए।
Types of Pronunciation
काकुस्वर परिवर्तन या स्वर का आरोहावरोह दो प्रकार का बताया गया है
1- साकांक्ष, 2- निराकांक्ष।
1- साकांक्ष: जिस वाक्य के बोलने से अर्थ अस्पष्ट और अपूर्ण रहे (अर्थात सस्पस (Suspense) रहे, उसे साकांक्ष काकु कहते हैं। जैसे “यदि तुम वहाँ जाते हो।” साकांक्ष काकु में स्वर तारसप्तक से आरंभ होकर मंद सप्तक पर उतरकर मध्यम तक पहुँचता है और वहीं ठहर जाता है। अर्थ अस्पष्ट होने के कारण उत्सुकता बनी रहती है।
2- निराकांक्ष : काकु में अर्थ स्पष्ट और वर्णालंकार पूर्ण रहते हैं। स्वर मंद्र से आरंभ होकर मूर्धन्य तक पहुँच जाता है।
स्वर के छः अलंकार बताए गए हैं
1- उच्च : इसमें स्वर मूर्धन्य तक पहुँच जाता है। इसका प्रयोग दूरस्थ व्यक्ति से संभाषण, वाद-विवाद, दूर से आवाज देना, बाधा और त्रास में किया जाता है।
2- दीप्त : दीप्त अलंकार में स्वर सिर स्थान पर पहुँचकर और भी ऊँचा-तारतर हो जाता है। इसका प्रयोग आक्षेप, कलह, विवाद, जोर लगाकर खींचना, शौर्य, दर्प और विलाप में किया जाता है।
3- मंद्र : इसमें स्वर उदरस्थान पर रहता है। इसका प्रयोग निर्वेद, ग्लानि, चिंता, दैन्य, रोग, गहरी चोट, मूर्छा, नशा और गोपनीय तथा उत्सुकतापूर्ण वार्तालाप में किया जाता है।
4- निम्न : इस अलंकार में स्वर मंदतर हो जाता है और वक्षस्थल से निकलता है। इसका प्रयोग व्याधि, शांति, थकावट, सामान्य वार्तालाप और गिर पड़ने तथा मूर्छित हो जाने की दशा में किया जाता है।
5- द्रुत : इसमें स्वर का स्थान कंठ होता है और उसकी गति तीव्र होती है। इसका प्रयोग भय, शीत, क्रोध, वेदना, जरूरी काम करने और बच्चे को चुप कराने में किया जाता है।
6- विलंबित: जब स्वर कंठ निकलता है और उसकी गति मंद रहती है तब उसे विलंबित अलंकार कहा जाता है। इसका प्रयोग शृंगार, करुण, लज्जा, चिंता, विस्मय, निंदा, पीड़ा, अमर्ष, असूया, गूढ वार्तालाप, असंगत तर्क, लंबी बीमारी और चेतावनी देने में किया जाता है।
विभिन्न रसों में इन अलंकारों का प्रयोग भी संक्षेप में बताया गया है। हास्य, करुण और शृंगार में विलंबित; वीर, रौद्र और अद्भुत में दीप्त तथा उच्च भयानक तथा वीभत्स में द्रुत एवं निम्न अलंकारों का प्रयोग करना चाहिए।